🌀 यक्ष अवतार – भगवान शिव का अहं विनाश और आत्मबोध का रहस्यपूर्ण रूप
भगवान शिव के 19 प्रमुख अवतारों में से यक्ष अवतार सबसे अधिक दार्शनिक, रहस्यात्मक, और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक है। यह वह रूप है जिसमें शिव ने किसी का वध नहीं किया, न तांडव किया, न तपस्या की — बल्कि एक मौन उपस्थिति के माध्यम से देवताओं के अहंकार का अंत किया, और उन्हें यह सिखाया कि परम तत्व वह नहीं जो दिखाई देता है, बल्कि वह है जो अनुभव होता है।
इस अवतार की कथा का मूल आधार केन उपनिषद में वर्णित एक दिव्य प्रसंग पर आधारित है। एक समय की बात है, जब देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त की और उन्हें लगा कि यह सब उनकी ही शक्ति का परिणाम है। इंद्र, अग्नि, वायु और अन्य देवता विजय में इतने मग्न हो गए कि उन्हें यह स्मरण ही नहीं रहा कि उनकी शक्ति का मूल स्रोत कौन है। यह वही स्थिति थी, जहाँ आत्मज्ञान से पहले अहंकार प्रकट होता है — और तब भगवान शिव ने एक लीला रची।
एक दिन आकाश में एक दिव्य प्रकाश के साथ एक अद्भुत, दीप्तिमान यक्ष प्रकट हुआ। उसका रूप शांत था, परंतु उसमें ऐसी आभा थी जो देवताओं की दृष्टि को ही स्तब्ध कर दे। इंद्र ने देवताओं से कहा – “पता लगाओ यह कौन है?” वायु देव गए। यक्ष ने पूछा – “तुम कौन हो, और क्या कर सकते हो?” वायु ने गर्व से कहा – “मैं वायु हूँ, समस्त ब्रह्मांड में घूम सकता हूँ, किसी भी वस्तु को उड़ा सकता हूँ।” यक्ष ने एक छोटा तिनका धरती पर रख दिया और कहा – “इसे उड़ा दो।” वायु ने पूरी शक्ति लगा दी, पर तिनका हिला तक नहीं।
इसके बाद अग्नि देव पहुँचे। यक्ष ने वही प्रश्न पूछा। अग्नि बोले – “मैं अग्नि हूँ, सब कुछ जला सकता हूँ।” यक्ष ने वही तिनका दिया और कहा – “इसे जला दो।” अग्नि ने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी, पर तिनका जला नहीं।
अब इंद्र स्वयं गए। जैसे ही वे निकट पहुँचे, यक्ष अंतर्धान हो गया। वहाँ एक दिव्य नारीरूप में उमा (पार्वती) प्रकट हुईं और इंद्र को बताया – “वह यक्ष कोई साधारण नहीं, स्वयं महादेव थे। वे यह दिखाने आए थे कि जो तुम समझते हो कि शक्ति तुम्हारी है — वह वास्तव में परब्रह्म की कृपा मात्र है। देवताओं की विजय उनकी अपनी नहीं, शिव की इच्छा थी।”
यह सुनकर इंद्र नतमस्तक हो गए। सभी देवताओं का अहंकार समाप्त हो गया। उन्हें पहली बार यह अनुभूति हुई कि अदृश्य शक्ति ही सबकुछ है — और वही शक्ति जब रूप लेती है, तो वह शिव बन जाती है।
इस यक्ष अवतार में शिव कोई तांडव नाचने वाले संहारक नहीं थे, न ही ध्यान में डूबे हुए योगी। वे शब्दरहित, रूपरहित, लेकिन पूर्ण प्रभावी उपस्थिति थे। उन्होंने कोई संवाद नहीं किया, केवल मौन रहकर ज्ञान की ज्वाला जलाई। वे न किसी अस्त्र के साथ आए, न रथ पर, न सवारी के साथ — वे तत्व की तरह प्रकट हुए, और यही उनकी दिव्यता का प्रमाण था।
यक्ष का यह रूप हमें यह सिखाता है कि ईश्वर का सबसे गूढ़ अवतार वह होता है जो अहंकार के क्षणों में मौन रूप से प्रकट होता है और आत्मा को आईना दिखा देता है। जब भी कोई व्यक्ति, संस्था या सत्ता यह मानने लगती है कि “सबकुछ मेरे कारण है,” तब शिव उसी यक्षरूप में उसकी चेतना को झकझोरते हैं।
इस अवतार का गूढ़ दर्शन यही है – कि परमात्मा की महिमा को केवल शक्तियों से नहीं, विनम्रता से समझा जा सकता है। ब्रह्म न देख सकता है, न समझा जा सकता है — वह केवल अनुभव से ही जाना जा सकता है। जब तक व्यक्ति यह नहीं जानता कि “मैं कुछ नहीं हूँ”, तब तक वह यह नहीं जान सकता कि “सबकुछ वही है।”
यह यक्षरूप शिव का अहं विनाश का अवतार है। वह भक्त को, देव को, और असुर को एक समान रूप से यह समझाते हैं कि आत्मबोध ही परम बोध है। शिव का यह रूप आज के युग में और भी प्रासंगिक है — जब मनुष्य अपनी तकनीक, उपलब्धियों और पदों के कारण स्वयं को भगवान समझने लगा है। पर जब कोई तिनका भी तुम्हारे वश में न हो — तब जानो कि कहीं कोई मौन शिव तुम्हें देख रहा है।
आज भी कई ध्यानयोगी और वेदांती साधक यक्ष शिव को अपनी साधना का केंद्र मानते हैं। यह शिव कोई मूर्ति नहीं, कोई कथा पात्र नहीं — वह हर विवेक क्षण में प्रकट होते हैं, जब व्यक्ति स्वयं के भीतर झाँकता है और कहता है – “वह जो मैं सोचता था, मैं वह नहीं हूँ।”