🔱 सुनटनर्तक अवतार – शिव का आनंद, नाद और ब्रह्म नृत्य स्वरूप
भगवान शिव के 19 प्रमुख अवतारों में से सुनटनर्तक अवतार एक अत्यंत विशिष्ट और दुर्लभ रूप है। यह शिव का वह रूप है जहाँ वे केवल योग, संहार या तपस्वी नहीं होते, बल्कि स्वयं संगीत, नृत्य, और नादब्रह्म का प्रतिरूप बन जाते हैं। शिव का यह अवतार केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय संतुलन का एक जीवंत उदाहरण है, जिसमें सृजन, पालन और संहार – तीनों शक्तियाँ एक ही नृत्य गति में एकीकृत होती हैं।
यह कथा उस समय की है जब देवताओं और असुरों के बीच संतुलन डगमगाने लगा था। असुरगण बल से संपन्न होते जा रहे थे, और देवता धीरे-धीरे अपनी शक्ति खो रहे थे। इसका कारण केवल युद्ध नहीं, बल्कि संसार की संगीतात्मक लय का बिगड़ जाना था। ऋषियों ने कहा कि ब्रह्मांड केवल पांच तत्वों से नहीं, बल्कि नाद (ध्वनि) से भी संचालित होता है। जब वह नाद असंतुलित हो जाता है, तो ब्रह्मांड की धुरी डगमगाने लगती है। इसीलिए शिव को नटराज कहा जाता है — क्योंकि वे ही हैं जो ब्रह्मांड की गति को नृत्य में संतुलित करते हैं।
परंतु इस बार शिव ने केवल नटराज रूप नहीं लिया, उन्होंने एक पूर्ण रूप से सौम्य, संगीत और कला से ओतप्रोत अवतार लिया — सुनटनर्तक अवतार। इस अवतार में वे एक युवक, अत्यंत सुंदर, मृदु भाव से भरे, कंठ में स्वर और चरणों में लय लिए, एक कलाधिपति के रूप में प्रकट हुए। उनके नृत्य में गति नहीं, गति में ब्रह्म था। उनके पग जिस धरती को छूते, वहाँ कमल खिलते; उनके हाथ जिस आकाश को स्पर्श करते, वहाँ तारागण झिलमिलाते।
इस अवतार का उद्देश्य केवल प्रदर्शन नहीं था। शिव ने यह रूप इसलिए धारण किया क्योंकि लोक में कला मर रही थी। संगीत को केवल शौक समझा जाने लगा था, नृत्य को केवल मनोरंजन, और लय को केवल तालों में बाँध दिया गया था। परंतु शिव जानते थे कि कला केवल माध्यम नहीं, ईश्वर से जुड़ने का मार्ग है। संगीत आत्मा को पिघलाता है, नृत्य आत्मा को उड़ान देता है, और ताल भीतर के विकारों को सम कर देती है।
सुनटनर्तक शिव एक बार एक प्रसिद्ध सभा में पहुँचे, जहाँ देवगंधर्व, अप्सराएँ और ऋषि-मुनि उपस्थित थे। वहाँ संगीत का प्रदर्शन हो रहा था, पर उसमें आत्मा नहीं थी – केवल राग और रचना थी, पर भक्ति नहीं थी। शिव ने वहां प्रवेश किया और सभी से आग्रह किया – “क्या मैं भी कुछ प्रस्तुत कर सकता हूँ?” वहाँ उपस्थित कलाकारों ने उन्हें केवल एक युवा साधारण गायक समझकर अनुमति दे दी।
तब शिव ने एक तान छेड़ी — एक ऐसा स्वर, जिसमें समस्त सृष्टि का कंपन समाहित था। जब उन्होंने नृत्य करना प्रारंभ किया, तो अप्सराएँ भी उनके चरणों की गति में बंध गईं। उनके पाँवों से जो ध्वनि निकली, वह केवल ध्वनि नहीं, उर्जा का ज्वार था। उनके शरीर की हर हरकत एक मंत्र थी, हर घूमाव एक यज्ञ, और हर ठहराव एक ध्यान। वहाँ कोई देख नहीं रहा था – सब अनुभव कर रहे थे।
सुनटनर्तक शिव ने बताया कि नृत्य केवल शारीरिक गति नहीं — यह आत्मा की वह गति है जो शिव से शिव तक पहुँचती है। उनके नृत्य से वातावरण में जो कंपन उत्पन्न हुआ, उसने ब्रह्मांड में फैले सभी असंतुलन को संतुलित कर दिया। देवताओं को फिर से ऊर्जा प्राप्त हुई, असुरों का अहंकार झुक गया, और मानवता को एक बार फिर रचनात्मकता की शक्ति का स्मरण हुआ।
इस अवतार में शिव ने यह भी सिखाया कि जो कला में तल्लीन होता है, वह युद्ध से भी अधिक शक्तिशाली होता है। कला वह शक्ति है जो बिना हथियार उठाए क्रांति कर सकती है। यह अवतार हमें याद दिलाता है कि संसार को संवारने के लिए केवल नीति और तप नहीं, रस, रंग और रचना भी चाहिए।
सुनटनर्तक रूप में शिव ने अनेक स्थानों पर नृत्य किया। कुछ परंपराओं में कहा जाता है कि यह वही रूप था जब शिव ने रावण को प्रसन्न कर तांडव का ज्ञान दिया था। वहीं कुछ मान्यताओं में इसे तारकासुर वध के बाद का शांतिकालीन रूप माना जाता है — जब शिव ने युद्ध के बाद ब्रह्मांड को शांत करने के लिए यह स्वरूप धारण किया।
इस अवतार से जुड़ी एक और कथा बताती है कि एक बार नारद मुनि ने शिव से प्रश्न किया — “प्रभो, आप ब्रह्मा के रचनाकार हैं, विष्णु के पालक हैं, परंतु आप स्वयं संगीत और नृत्य करते हैं — क्यों?” शिव ने उत्तर दिया – “क्योंकि सृष्टि को शास्त्र नहीं, श्रृंगार और सौंदर्य भी चाहिए। जब तक आत्मा को रस नहीं मिलेगा, वह रच नहीं सकेगी। और जब तक सृजन नहीं होगा, तब तक मैं भी शिव नहीं।”
आज भी शिव का यह सुनटनर्तक स्वरूप नटराज के रूप में चिदंबरम, काशी, केदार और दक्षिण भारत के मंदिरों में विशेष रूप से प्रतिष्ठित है। उनके नृत्य की मुद्रा को “अनंद तांडव” कहा जाता है – वह नृत्य जो केवल महाविनाश नहीं करता, बल्कि नवजीवन देता है।