🌀 कृष्णदर्शन अवतार – शिव का प्रेम, समर्पण और अद्वैत रूप
भगवान शिव की महिमा अनंत है। वे केवल संहार के देव नहीं, वे योग, भक्ति, ज्ञान और प्रेम के भी परम स्रोत हैं। अपने 19 अवतारों में उन्होंने विविध रूपों में धर्म, सत्य और साधना की रक्षा की। उन्हीं अवतारों में एक गूढ़ और रहस्यमय अवतार है — कृष्णदर्शन अवतार, जो शिव और विष्णु के एकत्व को दर्शाने वाला एक दिव्य, चेतन और अद्वैत स्वरूप है।
यह कथा उस युग की है जब भगवान श्रीकृष्ण ने पृथ्वी पर अवतार लिया था और धर्म को पुनः स्थापित किया। उनका जीवन प्रेम, लीला, ज्ञान और रण का अद्भुत मिश्रण था। वे गीता के उपदेशक भी थे और रासलीला के रसिक भी। जब कृष्ण के रूप में विष्णु अवतरित हुए, तब कैलाश पर स्थित शिव ने उन्हें केवल दूर से नहीं देखा, बल्कि उन्हें अनुभव करना चाहा। उन्होंने सोचा – “मैंने श्रीराम को अपनी भक्ति दी थी, अब मैं श्रीकृष्ण को अपनी आत्मा से देखना चाहता हूँ।”
तब भगवान शिव ने कृष्णदर्शन के लिए पृथ्वी पर अवतरण किया — न किसी राक्षस का वध करने, न किसी युद्ध में भाग लेने, बल्कि भक्ति करने के लिए। यह शिव का अत्यंत कोमल और समर्पण से भरा रूप था। उन्होंने साधारण वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण किया, शरीर पर भस्म, मस्तक पर त्रिपुंड, और हाथ में डमरू नहीं, बल्कि माला थी। वे वृंदावन पहुँचे, जहाँ श्रीकृष्ण अपनी बाललीलाओं में रमे हुए थे। शिव के इस रूप को ब्रजवासियों ने “बाबा मुनी” कहा।
जब वे गोपियों के मध्य पहुँचे और श्रीकृष्ण के दर्शन करना चाहा, तो गोपियों ने उन्हें रोका — “यह रास की भूमि है, यहाँ केवल गोपियाँ ही प्रवेश कर सकती हैं।” शिव मुस्कराए और बोले — “मैं कोई पुरुष नहीं, मैं केवल भक्ति हूँ। मुझे पुरुष न समझो, मुझे उस प्रेम का अंश मानो जो कृष्ण के चरणों से उत्पन्न होता है।”

शिव की यह भक्ति इतनी प्रबल थी कि उन्होंने स्वयं से पुरुषत्व का त्याग कर लिया और स्त्रीवेश धारण किया। वे “गोपीश्वर महादेव” बन गए — वह गोपी जो स्वयं शिव थे, जो रासलीला में सहभागी नहीं, साक्षी बने। वृंदावन में आज भी रासमंडल के प्रवेश द्वार पर गोपीश्वर महादेव की मूर्ति विराजमान है — यह प्रमाण है कि शिव ने न केवल कृष्ण को देखा, बल्कि पूर्ण रूप से अनुभव किया।
कृष्णदर्शन अवतार हमें यह सिखाता है कि शिव स्वयं जब भक्ति करते हैं, तो उनका स्वरूप अत्यंत सौम्य और विलीन हो जाता है। वे न रुद्र हैं, न तांडवकारी, वे केवल एक शुद्ध प्रेममयी आत्मा हैं जो परमात्मा के दर्शन में तृप्त होना चाहती है। उनका यह अवतार हमें यह भी बताता है कि ईश्वर स्वयं दूसरे ईश्वर की लीला देखने को भी लालायित होता है। यह केवल प्रेम की लीला नहीं, यह ईश्वर के भीतर समर्पण का अद्वैत है।
कृष्ण स्वयं भी शिव के इस रूप को पहचानते थे। उन्होंने रास समाप्ति के बाद सभी गोपियों से कहा — “आज हमारे साथ एक ऐसी गोपी थी, जो हम सबमें सबसे अधिक भक्ति से भरी थी। वह कोई साधारण गोपी नहीं, वह स्वयं भगवान शिव थे, जो अपने प्रेम को प्रमाणित करने के लिए गोपी का रूप धरकर आए।” यह सुनकर समस्त गोपियाँ नतमस्तक हो गईं, और तब से ब्रजभूमि में शिव की गोपीरूप में पूजा होने लगी।
कृष्णदर्शन अवतार केवल रासलीला तक सीमित नहीं रहा। शिव ने इस अवतार में द्वारका जाकर श्रीकृष्ण के अनेक रूपों को भी देखा – राजसी कृष्ण, नीति के ज्ञाता कृष्ण, और गीता उपदेशक कृष्ण। उन्होंने महाभारत युद्ध के पहले कुरुक्षेत्र में भी श्रीकृष्ण के रथ पर दृष्टिपात किया, और उस समय उनकी आत्मा गद्गद हो गई। उन्हें ज्ञात हुआ कि श्रीकृष्ण केवल लीला पुरुष नहीं, वे समस्त ब्रह्मांड के साक्षात परमपुरुष हैं।
यह अवतार हमें यह सिखाता है कि भक्ति का कोई नियम नहीं होता, और ईश्वर भी जब प्रेम करता है, तो समर्पण कर देता है। शिव, जो योगियों के योगी हैं, तंत्र के अधिपति हैं, उन्होंने स्वयं कृष्ण के प्रति अपनी आत्मा अर्पित की। यह केवल विनम्रता नहीं, यह ईश्वर के भीतर ईश्वर की खोज है। यह अद्वैत का वह स्वरूप है जहाँ दो नहीं रहते – केवल एक ही चेतना शेष रह जाती है – जो स्वयं शिव भी है, और कृष्ण भी।
आज भी वृंदावन में गोपीश्वर महादेव का मंदिर, कृष्णदर्शन अवतार की जीवंत गाथा कहता है। वहाँ रात्रि रास से पहले महादेव की पूजा होती है, क्योंकि बिना उनके अनुमति के कोई भी रास के दिव्य मंडल में प्रवेश नहीं कर सकता। यह दर्शाता है कि शिव केवल त्रिनेत्रधारी देव नहीं, वे प्रेम के द्वारपाल भी हैं। कृष्णदर्शन अवतार यह सिखाता है कि यदि ईश्वर को पाना है, तो ज्ञान, योग और कर्म के साथ-साथ निर्लिप्त भक्ति की भी आवश्यकता है।