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भिक्षुवर्य अवतार (Bhikshuvarya Avatar) – शिव का भिक्षा में छिपा परब्रह्म स्वरूप

By Admin

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🙏 भिक्षुवर्य अवतार – शिव का भिक्षा में छिपा परब्रह्म स्वरूप

भगवान शिव के 19 प्रमुख अवतारों में भिक्षुवर्य अवतार सर्वाधिक रहस्यपूर्ण और विनम्रता से परिपूर्ण है। इस अवतार में शिव स्वयं एक भिक्षुक बनकर लोकों में विचरण करते हैं — वह भी कोई सामान्य भिक्षुक नहीं, बल्कि “वर्य”, यानी श्रेष्ठतम। उनका यह रूप यह दर्शाता है कि ईश्वर को पहचानने के लिए वैभव नहीं, विनम्रता चाहिए। शिव का यह रूप आत्मा के अहं को गलाने और भक्ति की परीक्षा लेने वाला है — जहाँ स्वयं देवता भी भ्रमित हो जाते हैं कि यह कोई दरिद्र है या स्वयं शिव का ब्रह्मस्वरूप।

यह कथा उस कालखंड की है जब पृथ्वी पर राजाओं का अभिमान अपने चरम पर था। अनेक राज्यधिपति स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने लगे थे, उनके दरबारों में ऋषियों, संतों और योगियों की उपेक्षा हो रही थी। यज्ञ केवल स्वर्ग की आकांक्षा के लिए होते थे, धर्म केवल प्रतीक बन गया था। ऐसे समय में भगवान शिव ने यह दिखाने के लिए कि ईश्वर को दान नहीं चाहिए, केवल समर्पण चाहिए, भिक्षुवर्य अवतार लिया।

उन्होंने शरीर पर जर्जर वसन धारण किया, जटा बिखरी हुई थी, हाथ में एक टूटा-फूटा कमंडल था, और चेहरा धूप और धूल से मलिन। उनके स्वरूप में कोई तेज नहीं था, कोई राजसी भाव नहीं — केवल एक अनजाना, दीन-सा चेहरा, जो आत्मा को भीतर तक झकझोर दे। वे नगर-नगर घूमते, महलों के द्वार पर भिक्षा माँगते — न भोजन के लिए, न वस्त्र के लिए, बल्कि केवल एक भावना की परीक्षा के लिए

कहा जाता है कि उन्होंने एक बार राजा शशिकेतु के राज्य में प्रवेश किया। वह राजा अत्यंत धर्मप्रेमी कहलाता था, परंतु उसका अहंकार छिपा हुआ था — वह सोचता था कि जो वह करता है, वही धर्म है। जब शिव, भिक्षुक के रूप में उसके महल के द्वार पर पहुँचे, तो द्वारपालों ने उन्हें नीचे गिरा दिया, उनका अपमान किया। यह देखकर राजा बाहर आया और क्रोध से कहा – “भिक्षा माँगने का भी कोई नियम होता है। इस तरह अपवित्र वेश में तुम मेरे द्वार पर क्यों आए हो?”

शिव ने सिर झुकाकर केवल इतना कहा – “मैं भिक्षुक नहीं, तुम्हारे अहंकार का दर्पण हूँ।” यह सुनते ही राजा के नेत्र खुल गए, उसका शरीर काँपने लगा, और तभी शिव ने अपना सत्यस्वरूप प्रकट किया — वह तेजस्वी, रुद्र, तांडवमयी रूप जिससे सृष्टि कंपित हो जाती है। शिव बोले – “तू राजा है, यह तेरा कर्म है। लेकिन जब तुम यह मानने लगो कि जो कुछ तुम्हारे पास है, वह केवल तुम्हारा है — तब तुम धर्म से गिर जाते हो।”

उसके बाद शिव ने वह रूप फिर से छिपा लिया और नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में ऐसे ही भिक्षा माँगते रहे। उन्होंने लोगों की सहृदयता, दया, विनम्रता और भक्ति की परीक्षा ली। कहीं उन्हें अपमान मिला, कहीं श्रद्धा, कहीं दया, तो कहीं प्रेम। लेकिन वह हर स्थान पर निर्लिप्त, निश्छल और मौन रहे। उन्होंने कभी अपने शिवस्वरूप को प्रकट नहीं किया — क्योंकि यह अवतार प्रकट नहीं होता, यह परीक्षा लेता है

कुछ स्थानों पर जब किसी स्त्री ने अपनी अंतिम रोटी उन्हें दी, उन्होंने आशीर्वाद देकर उसके घर को अन्नपूर्णा बना दिया। कहीं एक बच्चे ने उन्हें पानी पिलाया, तो उन्होंने उसे दीर्घायु का वरदान दिया। इस अवतार में शिव ने यह बताया कि धर्म और ईश्वर का वास केवल मंदिरों में नहीं होता, बल्कि एक भिक्षुक को आदर देने में, एक प्यासे को पानी पिलाने में, और अपनी संपत्ति में दीन का हिस्सा देने में भी होता है।

शिव का यह रूप “भिक्षुवर्य” कहलाया — क्योंकि वे सभी भिक्षु रूपों में श्रेष्ठ थे। उनका उद्देश्य भिक्षा माँगना नहीं था, बल्कि लोगों की आत्मा की वास्तविकता जानना था। यह अवतार केवल सन्यासियों के लिए आदर्श नहीं, राजाओं और गृहस्थों के लिए भी चेतावनी है कि धर्म केवल कर्मकांड नहीं, भावना का नाम है

शिव के इस रूप को कुछ परंपराएँ “भिक्षाटन मुद्रा” के रूप में पूजती हैं, जहाँ वे नटराज नहीं, रुद्र नहीं, योगी नहीं — एक सामान्य, परंतु दिव्य भिक्षुक के रूप में खड़े हैं। यह चित्र केवल एक मूर्ति नहीं, यह एक संदेश है कि शिव वहाँ भी होते हैं जहाँ कोई देखता तक नहीं, और वे वहीं प्रकट होते हैं जहाँ अहंकार का त्याग होता है।

यह अवतार आज के युग में और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है — जब सेवा, भक्ति, और विनम्रता को कमज़ोरी समझा जाने लगा है। जब कोई दरवाज़े पर आता है और हम यह सोचते हैं कि “यह कौन है?” — तब शायद वह शिव ही हो, जो हमें परखने आए हैं। भिक्षुवर्य हमें याद दिलाते हैं कि शिव को पाने के लिए तिलक, मालाएं, मंत्र, या चढ़ावे की आवश्यकता नहीं — केवल “हृदय की सच्चाई” चाहिए।

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