कर्म पर संस्कृत श्लोक | Sanskrit Shlok on Karma

कर्म, अर्थात् कार्य करने की प्रक्रिया, मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण तत्व है। संस्कृत में अनेक श्लोक हैं जो कर्म के महत्व, उसके फल और निष्काम भाव से कर्म करने के सिद्धांत को स्पष्ट करते हैं। ये श्लोक न केवल धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि जीवन के दैनिक कार्यों में भी मार्गदर्शक होते हैं।

कर्म का अर्थ केवल कार्य करना नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक अवधारणा है जिसमें सही उद्देश्य, नीयत और परिश्रम शामिल हैं। भगवद गीता जैसे ग्रंथों में कर्म को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बताया गया है। श्लोकों के माध्यम से हमें यह सिखाया जाता है कि कर्म करने का अधिकार हमारे पास है, लेकिन उसके फल पर नियंत्रण नहीं होता। यह निष्कामता और भक्ति की भावना को बढ़ावा देता है, जिससे व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर सकता है।

कर्म पर संस्कृत श्लोक Sanskrit Shlok on Karma
कर्म पर संस्कृत श्लोक

कर्म पर संस्कृत श्लोक | Sanskrit Shlok on Karma

यहाँ कर्म पर आधारित दस प्रमुख संस्कृत श्लोक और उनके विस्तृत अर्थ प्रस्तुत हैं, जो कर्म के महत्व और उसके फल के सिद्धांत को स्पष्ट करते हैं:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।

भावार्थ: भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं कि तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल पर नहीं। इसलिए, तुम्हें केवल अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए और कर्म के परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए। यह श्लोक कर्म और उसके फल के अलग-अलग होने की अवधारणा को स्पष्ट करता है। कर्म के प्रति निष्काम और समर्पित भाव रखकर कर्म करना चाहिए, क्योंकि कर्म का फल ईश्वर की इच्छा और कर्तव्य पर निर्भर करता है।

उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।

भावार्थ: यह श्लोक कहता है कि किसी भी कार्य को केवल इच्छाओं और विचारों से नहीं किया जा सकता; उसे प्रयास और मेहनत से ही सिद्ध किया जा सकता है। जैसे एक सोते हुए सिंह के मुँह में मृग (पशु) नहीं आते, वैसे ही बिना प्रयास के कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। सफलता के लिए सक्रियता और मेहनत आवश्यक हैं।

अचोद्यमानानि यथा, पुष्पाणि फलानि च।
स्वं कालं नातिवर्तन्ते, तथा कर्म पुरा कृतम्।

भावार्थ: जैसे फूल और फल अपने समय पर स्वतः ही उगते हैं और पकते हैं, वैसे ही पूर्वकृत कर्म भी अपने समय पर अपने फल देते हैं। कर्मों का फल समय पर और स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है, यह श्लोक कर्म के समय और फल के सिद्धांत को दर्शाता है।

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।

भावार्थ: जो व्यक्ति अपने कर्मों को भगवान को समर्पित करके और आसक्ति को त्यागकर करता है, वह पाप से अप्रभावित रहता है। यह श्लोक बताता है कि जैसे कमलपत्र जल से अप्रभावित रहता है, वैसे ही कर्म को निष्काम भाव से करने पर पाप और दोष भी व्यक्ति को प्रभावित नहीं करते।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।

भावार्थ: इस श्लोक में कहा गया है कि अपने धर्म के अनुसार कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। यदि तुम कर्म नहीं करोगे, तो शरीर का निर्वाह भी कठिन हो जाएगा। कर्म करने से जीवन की व्यवस्थाएं भी सुचारू रहती हैं और सफलता मिलती है।

सर्वे कर्मवशा वयम्।

भावार्थ: यह श्लोक स्पष्ट करता है कि सभी प्राणी कर्म के अधीन हैं। हमारे जीवन की परिस्थितियाँ, सुख और दुःख, सब कर्मों पर निर्भर करते हैं। कर्म ही हमारी स्थिति और जीवन की दिशा को निर्धारित करते हैं।

कर्मणा वर्धते धर्मो यथा धर्मस्तथैव सः।

भावार्थ: इस श्लोक के अनुसार, धर्म कर्म के माध्यम से बढ़ता है। जो व्यक्ति अपने कर्मों को धर्म के अनुसार करता है, वही सच्चा धर्मात्मा बनता है। कर्म और धर्म एक-दूसरे से संबंधित हैं, और कर्म के माध्यम से ही धर्म की वृद्धि होती है।

कर्मणामी भान्ति देवाः परत्र कर्मणैवेह प्लवते मातरिश्वा।
अहोरात्रे विदधत् कर्मणैव अतन्द्रितो नित्यमुदेति सूर्यः।।

भावार्थ: देवता, वायु, और सूर्य सभी कर्म के कारण कार्य करते हैं। देवता कर्मों के फल को दिखाते हैं, वायु कर्मों की प्रेरणा देती है, और सूर्य कर्म करके दिन-रात का चक्र संचालित करता है। यह श्लोक बताता है कि सभी प्राकृतिक प्रक्रियाएं कर्म के आधार पर चलती हैं।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।

भावार्थ: यह श्लोक स्पष्ट करता है कि बिना प्रयास और मेहनत के कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। जैसे सोते हुए सिंह के मुँह में मृग नहीं आते, वैसे ही बिना कार्य किए किसी भी लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।


इस प्रकार, संस्कृत के ये श्लोक कर्म की गहराई, उसकी नैतिकता और जीवन में उसके प्रभाव को समझाने में मदद करते हैं। कर्म के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने से हम न केवल व्यक्तिगत विकास कर सकते हैं, बल्कि समाज और विश्व में भी सकारात्मक योगदान दे सकते हैं।

ये श्लोक कर्म की भूमिका, महत्व और उसके सिद्धांत को स्पष्ट करते हैं, और सिखाते हैं कि कर्म और प्रयास ही जीवन की सफलता का आधार हैं।

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