दान भारतीय संस्कृति और धर्मों में सदियों से महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह न केवल व्यक्तिगत उत्थान का साधन है, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक विकास का भी मूल स्तंभ है। दान का अर्थ है, बिना किसी स्वार्थ या प्रतिफल की इच्छा के, किसी जरूरतमंद को सहायता प्रदान करना। इसे धार्मिक कर्तव्य और नैतिकता का उच्चतम रूप माना जाता है।
हिन्दू धर्मग्रंथों, वेदों, उपनिषदों, महाभारत, रामायण और अन्य शास्त्रों में दान के महत्व पर विस्तृत रूप से चर्चा की गई है। विभिन्न श्लोकों में दान की महिमा, पात्रता, और इसके प्रभाव को समझाया गया है। दान के माध्यम से मनुष्य न केवल सांसारिक सुख और समृद्धि प्राप्त करता है, बल्कि मोक्ष और आध्यात्मिक उन्नति का भी अधिकारी बनता है।
इस लेख में, आइए जानते हैं दान से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण श्लोक, जो इसके महत्व, गुण, और सही तरीके से दान करने के मार्गदर्शन को स्पष्ट करते हैं। इन श्लोकों के माध्यम से यह समझने की कोशिश करेंगे कि किस प्रकार दान जीवन को सुखमय, समृद्ध और पुण्यमय बना सकता है।
दान पर श्लोक
दान से संबंधित महत्वपूर्ण श्लोक
दानेन प्राप्यते स्वर्गो दानेन सुखमश्नुते ।
इहामुत्र च दानेन पूज्यो भवति मानवः ॥
दान से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और दान देने वाला व्यक्ति सांसारिक सुखों का अनुभव करता है। दान करने से मनुष्य इस जीवन में भी और अगले जीवन में भी पूजनीय बनता है।
यद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनो धनम् ।
अन्ये मृतस्य क्रीडन्ति दारैरपि धनैरपि ॥
जो व्यक्ति दान करता है या अपने लिए खर्च करता है, वही उसका असली धन होता है। मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति और धन दूसरों द्वारा उपयोग किया जाता है, यहां तक कि उसके अपने परिवार के लोग भी उसका धन और पत्नी का उपयोग करते हैं।
भवन्ति नरकाः पापात् पापं दारिद्य सम्भवम् ।
दारिद्यमप्रदानेन तस्मात् दानपरो भव ॥
पाप से नरक प्राप्त होता है और पाप से दरिद्रता उत्पन्न होती है। दान न करने से दरिद्रता आती है, इसलिए मनुष्य को सदैव दान करने की प्रवृत्ति रखनी चाहिए।
अपात्रेभ्यः तु दत्तानि दानानि सुबहून्यपि ।
वृथा भवन्ति राजेन्द्र भस्मन्याज्याहुति र्यथा ॥
जो दान अयोग्य व्यक्तियों को दिया जाता है, वह व्यर्थ होता है, जैसे कि भस्म (राख) पर आहुति डालने से कोई फल नहीं मिलता। इसलिए दान सदैव योग्य पात्र को ही देना चाहिए।
पात्रेभ्यः दीयते नित्यमनपेक्ष्य प्रयोजनम् ।
पात्रेभ्यः दीयते नित्यमनपेक्ष्य प्रयोजनम् ॥
सदा योग्य व्यक्ति को दान करना चाहिए, बिना किसी स्वार्थ या फल की अपेक्षा के। यह दान उच्चतम प्रकार का होता है, और इससे पुण्य की वृद्धि होती है।
अभिगम्योत्तमं दानमाहूतं चैव मध्यमम् ।
अधमं याच्यमानं स्यात् सेवादानं तु निष्फलम् ॥
जो दान बिना मांगे दिया जाए, वह उत्तम होता है। आह्वान पर दिया गया दान माध्यम है, और जो मांगे जाने पर दिया जाए, वह निम्न प्रकार का होता है। सेवा के रूप में दिया गया दान निष्फल होता है।
दानं वाचः तथा बुद्धेः वित्तस्य विविधस्य च ।
शरीरस्य च कुत्रापि केचिदिच्छन्ति पण्डिताः ॥
दान केवल धन का नहीं होता, बल्कि वाणी का, बुद्धि का और विभिन्न प्रकार के संसाधनों का भी हो सकता है। कुछ विद्वान शरीर के श्रम को भी दान के रूप में मानते हैं।
गोदुग्धं वाटिकापुष्पं विद्या कूपोदकं धनम् ।
दानाद्विवर्धते नित्यमदानाच्च विनश्यति ॥
गो का दूध, बगीचे के फूल, विद्या, कुंए का जल और धन, ये सभी दान के द्वारा बढ़ते हैं, और दान न करने से इनकी कमी होती है।
देयं भेषजमार्तस्य परिश्रान्तस्य चासनम् ।
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम् ॥
जिसे रोग हो, उसे औषधि का दान देना चाहिए; थके हुए को आराम देने के लिए आसन का दान करें। प्यासे को पानी और भूखे को भोजन देना सबसे बड़ा दान माना जाता है।
दानं ख्यातिकरं सदा हितकरं संसार सौख्याकरं
नृणां प्रीतिकरं गुणाकरकरं लक्ष्मीकरं किङ्करम् ।
स्वर्गावासकरं गतिक्षयकरं निर्वाणसम्पत्करम्
वर्णायुर्बलवृद्धिकरं दानं प्रदेयं बुधैः ॥
दान सदा ही यश प्रदान करता है, संसार में सुख, मानवों में प्रेम और गुणों की वृद्धि करता है। यह लक्ष्मी को आकर्षित करता है और स्वर्ग में स्थान दिलाता है। यह मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है, वर्ण और आयु की वृद्धि करने वाला है। इसलिए, ज्ञानी व्यक्तियों को सदैव दान करना चाहिए।
देयं भो ह्यधने धनं सुकृतिभिः नो सञ्चितं सर्वदा
श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपते रद्यापि कीर्तिः स्थिता ।
आश्चर्यं मधु दानभोगरहितं नष्टं चिरात् सञ्चितम्
निर्वेदादिति पाणिपादयुगलं घर्षन्त्यहो मक्षिकाः ॥
जो व्यक्ति सुकृत (सत्कर्म) करता है, उसे सदैव अपने धन का उपयोग दान में करना चाहिए, न कि इसे संचित करते रहना चाहिए। कर्ण और बलि जैसे महान दानी आज भी अपने दान के कारण प्रसिद्ध हैं। यह आश्चर्य की बात है कि जो मधु (शहद) उन्होंने संचित किया था, वह बिना भोग किए नष्ट हो गया। जब मनुष्य का शरीर नष्ट होता है, तो उसके हाथ-पैर मृगियां घिसती हैं (शरीर के नष्ट होने का संकेत) और धन व्यर्थ रह जाता है।
मातापित्रो र्गुरौ मित्रे विनीते चोपकारिणि ।
दीनानाथ विशिष्टेषु दत्तं तत्सफलं भवेत् ॥
माता-पिता, गुरु, मित्र, विनम्र और उपकारी व्यक्तियों, दीन-दुखियों, और श्रेष्ठ व्यक्तियों को दिया गया दान सदा फलदायी होता है। ऐसे पात्रों को दिया गया दान व्यर्थ नहीं जाता।
न्यायागतेन द्र्व्येण कर्तव्यं पारलौकिकम् ।
दानं हि विधिना देयं काले पात्रे गुणान्विते ॥
जो धन न्यायसंगत और धर्म के मार्ग से कमाया गया हो, उससे ही दान करना चाहिए। यह दान समय पर और योग्य पात्र को देना चाहिए, क्योंकि सही समय और सही पात्र के बिना दान का महत्व कम हो जाता है।
हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम् ।
श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किं प्रयोजनम् ॥
हाथों का वास्तविक आभूषण दान है, गले का आभूषण सत्य बोलना है, और कानों का आभूषण शास्त्रों का ज्ञान है। बाहरी आभूषणों का महत्व तब तक नहीं है जब तक ये गुण व्यक्ति के भीतर न हों।
नेन प्राप्यते स्वर्गो दानेन सुखमश्नुते ।
इहामुत्र च दानेन पूज्यो भवति मानवः ॥
दान के माध्यम से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और दान से ही मनुष्य जीवन के सभी सुखों का अनुभव करता है। इस लोक और परलोक में, दान के कारण मनुष्य का सम्मान होता है और वह पूजनीय बनता है।
सार्थः प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः ।
आतुरस्य भिषग् मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः ॥
जो व्यापारी यात्रा करता है, उसके लिए उसका साथी उसका मित्र होता है। जो व्यक्ति घर में है, उसके लिए उसकी पत्नी मित्र होती है। बीमार व्यक्ति के लिए डॉक्टर मित्र होता है, और मरते हुए व्यक्ति के लिए दान उसका सबसे बड़ा मित्र होता है। मृत्यु के समय किया गया दान ही उसके साथ जाता है और उसे मोक्ष दिलाता है।
अल्पमपि क्षितौ क्षिप्तं वटबीजं प्रवर्धते ।
जलयोगात् यथा दानात् पुण्यवृक्षोऽपि वर्धते ॥
जैसे एक छोटा-सा वटवृक्ष का बीज धरती में बोने पर जल से बढ़ता है और विशाल वृक्ष बनता है, वैसे ही छोटा-सा दान पुण्य के विशाल वृक्ष को जन्म देता है। दान करने से पुण्य की वृद्धि होती है, और यह समय के साथ बहुत फलदायी हो जाता है।
दान के इन श्लोकों में जीवन में दान की भूमिका को स्पष्ट रूप से बताया गया है, और यह बताया गया है कि किस प्रकार दान मनुष्य को इस संसार और परलोक दोनों में लाभ पहुंचाता है।