संस्कृत श्लोक अर्थ सहित-1
स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा !
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् !!किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता ठीक उसी तरह जैसे ठन्डे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है.
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते !
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः !!किसी जगह पर बिना बुलाये चले जाना, बिना पूछे बहुत अधिक बोलते रहना, जिस चीज या व्यक्ति पर विश्वास नहीं करना चाहिए उस पर विश्वास करना मुर्ख लोगो के लक्षण होते है.
यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः !
चित्ते वाचि क्रियायांच साधुनामेक्रूपता !!अच्छे लोग वही बात बोलते है जो उनके मन में होती है. अच्छे लोग जो बोलते है वही करते है. ऐसे पुरुषो के मन, वचन व कर्म में समानता होती है.
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता !
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता !!किसी व्यक्ति के बर्बाद होने के 6 लक्षण होते है – नींद, गुस्सा, भय, तन्द्रा, आलस्य और काम को टालने की आदत.
द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् !
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् !!दो प्रकार के लोगो के गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए. पहले वे व्यक्ति जो अमीर होते है पर दान नहीं करते और दूसरे वे जो गरीब होते है लेकिन कठिन परिश्रम नहीं करते.
यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि !!वह व्यक्ति जो अलग – अलग जगहों या देशो में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है उसकी बुद्धि उसी तरह से बढती है जैसे तेल का बूंद पानी में गिरने के बाद फ़ैल जाता है.
परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः !
अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् !!अगर कोई अपरिचित व्यक्ति आपकी सहायता करे तो उसे अपने परिवार के सदस्य की तरह ही महत्व दे वही अगर आपका परिवार का व्यक्ति आपको नुकसान पहुंचाए तो उसे महत्व देना बंद कर दे.
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः !
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति !!जिन लोगो के पास विद्या, तप, दान, शील, गुण और धर्म नहीं होता. ऐसे लोग इस धरती के लिए भार है और मनुष्य के रूप में जानवर बनकर घूमते है.
अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः !
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् !!निम्न कोटि के लोगो को सिर्फ धन की इच्छा रहती है, ऐसे लोगो को सम्मान से मतलब नहीं होता. सम्मान धन से अधिक मूल्यवान है.
कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति !
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम् !!जिस तरह नदी पार करने के बाद लोग नाव को भूल जाते है ठीक उसी तरह से लोग अपने काम पूरा होने तक दूसरो की प्रसंशा करते है और काम पूरा हो जाने के बाद दूसरे व्यक्ति को भूल जाते है.
न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि !
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् !!इसे न ही कोई चोर चुरा सकता है, न ही राजा छीन सकता है, न ही इसको संभालना मुश्किल है और न ही इसका भाइयो में बंटवारा होता है. यह खर्च करने से बढ़ने वाला धन हमारी विद्या है जो सभी धनो से श्रेष्ठ है.
शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः !
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा !!सौ लोगो में एक शूरवीर होता है, हजार लोगो में एक विद्वान होता है, दस हजार लोगो में एक अच्छा वक्ता होता है वही लाखो में बस एक ही दानी होता है.
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन !
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते !!एक राजा और विद्वान में कभी कोई तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि एक राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है वही एक विद्वान हर जगह सम्मान पाता है.
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः !
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति !!मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य है. मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र परिश्रम होता है क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं रहता.
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् !
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति !!जिस तरह बिना एक पहिये के रथ नहीं चल सकता ठीक उसी तरह से बिना पुरुषार्थ किये किसी का भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता.
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः !
श्रुतवानपि मूर्खो सौ यो धर्मविमुखो जनः !!जो व्यक्ति अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है वह व्यक्ति बलवान होने पर भी असमर्थ, धनवान होने पर भी निर्धन व ज्ञानी होने पर भी मुर्ख होता है.
जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं !
मानोन्नतिं दिशति पापमपा करोति !!अच्छे दोस्तों का साथ बुद्धि की जटिलता को हर लेता है, हमारी बोली सच बोलने लगती है, इससे मान और उन्नति बढती है और पाप मिट जाते है.
चन्दनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चन्द्रमाः !
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः !!इस दुनिया में चन्दन को सबसे अधिक शीतल माना जाता है पर चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होती है लेकिन एक अच्छे दोस्त चन्द्रमा और चन्दन से शीतल होते है.
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् !
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् !!यह मेरा है और यह तेरा है, ऐसी सोच छोटे विचारो वाले लोगो की होती है. इसके विपरीत उदार रहने वाले व्यक्ति के लिए यह पूरी धरती एक परिवार की तरह होता है.
पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् !
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् !!किताब में रखी विद्या व दूसरे के हाथो में गया हुआ धन कभी भी जरुरत के समय काम नहीं आते.
विद्या मित्रं प्रवासेषु, भार्या मित्रं गृहेषु च !
व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च !!विद्या की यात्रा, पत्नी का घर, रोगी का औषधि व मृतक का धर्म सबसे बड़ा मित्र होता है.
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् !
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः !!बिना सोचे – समझे आवेश में कोई काम नहीं करना चाहिए क्योंकि विवेक में न रहना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है. वही जो व्यक्ति सोच – समझ कर कार्य करता है माँ लक्ष्मी उसी का चुनाव खुद करती है.
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः !
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः !!दुनिया में कोई भी काम सिर्फ सोचने से पूरा नहीं होता बल्कि कठिन परिश्रम से पूरा होता है. कभी भी सोते हुए शेर के मुँह में हिरण खुद नहीं आता.
विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् !
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् !!विद्या हमें विनम्रता प्रदान करती है, विनम्रता से योग्यता आती है व योग्यता से हमें धन प्राप्त होता है और इस धन से हम धर्म के कार्य करते है और सुखी रहते है.
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः !
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा !!जो माता – पिता अपने बच्चो को पढ़ाते नहीं है ऐसे माँ – बाप बच्चो के शत्रु के समान है. विद्वानों की सभा में अनपढ़ व्यक्ति कभी सम्मान नहीं पा सकता वह वहां हंसो के बीच एक बगुले की तरह होता है.
सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् !
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् !!सुख चाहने वाले को विद्या नहीं मिल सकती है वही विद्यार्थी को सुख नहीं मिल सकता. इसलिए सुख चाहने वालो को विद्या का और विद्या चाहने वालो को सुख का त्याग कर देना चाहिए.
संस्कृत श्लोक अर्थ सहित – 2
स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा ।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ॥किसी भी व्यक्ति का मूल स्वभाव कभी नहीं बदलता है, चाहे उसे कितनी भी सलाह दी जाए। ठीक उसी तरह जैसे पानी तब तक ही गर्म रहता है जब तक उसे उबाला जाता है, लेकिन कुछ समय बाद वह फिर ठंडा हो जाता है।
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ॥बिना बुलाए स्थानों पर जाना, बिना पूछे बहुत बोलना, और अविश्वसनीय चीजों पर विश्वास करना—ये सभी मूर्ख और बुरे लोगों के लक्षण हैं।
यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः ।
चित्ते वाचि क्रियायांच साधुनामेक्रूपता ॥अच्छे लोगों के मन में जो बात होती है, वे वही बोलते हैं, और जो बोलते हैं, वही करते हैं। सज्जन पुरुषों के मन, वचन और कर्म में एकरूपता होती है।
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥छः अवगुण व्यक्ति के पतन का कारण बनते हैं—नींद, तन्द्रा, डर, गुस्सा, आलस्य और काम को टालने की आदत।
द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ॥दो प्रकार के लोग होते हैं, जिनके गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए—पहला, जो अमीर होते हुए भी दान न करता हो; और दूसरा, जो गरीब होते हुए भी कठिन परिश्रम नहीं करता हो।
त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं पुत्राश्च दाराश्च सहृज्जनाश्च ।
तमर्थवन्तं पुनराश्रयन्ति अर्थो हि लोके मनुष्यस्य बन्धुः ॥मित्र, बच्चे, पत्नी और सभी सगे-सम्बन्धी उस व्यक्ति को छोड़ देते हैं, जिसके पास धन नहीं होता। लेकिन जब वही व्यक्ति धनवान हो जाता है, तो सभी लोग वापस लौट आते हैं। धन ही इस संसार में व्यक्ति का सबसे बड़ा मित्र होता है।
यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् ।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥जो व्यक्ति विभिन्न देशों में घूमता है और विद्वानों की सेवा करता है, उसकी बुद्धि का विस्तार उसी तरह होता है जैसे तेल की बूंद पानी में गिरकर फैल जाती है।
परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः ।
अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् ॥कोई अपरिचित व्यक्ति भी यदि आपकी मदद करे, तो उसे परिवार के सदस्य की तरह महत्व देना चाहिए। और यदि परिवार का कोई अपना सदस्य भी नुकसान पहुंचाए, तो उसे महत्व देना बंद कर देना चाहिए।
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥जिन लोगों के पास न विद्या है, न तप, न दान, न गुण, न धर्म—वे इस पृथ्वी पर भार स्वरूप हैं और मनुष्य के रूप में पशुओं की तरह घूमते रहते हैं।
अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ॥निम्न कोटि के लोग केवल धन की इच्छा रखते हैं, जबकि मध्यम कोटि के लोग धन और मान दोनों चाहते हैं। लेकिन उत्तम कोटि के लोगों के लिए सम्मान ही सर्वोपरि होता है, क्योंकि सम्मान ही महान लोगों का सच्चा धन होता है।
कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति ।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम् ॥जब तक काम पूरा नहीं होता, लोग दूसरों की प्रशंसा करते हैं। लेकिन काम पूरा हो जाने के बाद वे भूल जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे नदी पार करने के बाद नाव का कोई उपयोग नहीं रहता।
मूर्खा यत्र न पूज्यते धान्यं यत्र सुसंचितम् ।
दंपत्यो कलहं नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागतः ॥जहाँ मूर्ख को सम्मान नहीं मिलता, जहाँ अनाज अच्छे से संचित किया जाता है और जहाँ पति-पत्नी में झगड़ा नहीं होता—वहाँ लक्ष्मी स्वयं निवास करती हैं।
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥राजा और विद्वान की तुलना कभी नहीं की जा सकती, क्योंकि राजा केवल अपने राज्य में सम्मानित होता है, जबकि विद्वान हर स्थान पर सम्मान पाता है।
संस्कृत भाषा में सुविचार तथा सूक्तियाँ – 3
अलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम् |
अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् ||जो आलस करते हैं उन्हें विद्या नहीं मिलती, जिनके पास विद्या नहीं होती वो धन नहीं कमा सकता, जो निर्धन हैं उनके मित्र नहीं होते और मित्र के बिना सुख की प्राप्ति नहीं होती।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः |
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसमें बसने वाला आलस्य है। मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र उसका परिश्रम है जो हमेशा उसके साथ रहता है, इसलिए वह दुखी नहीं रहता।
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||रथ कभी एक पहिये पर नहीं चल सकता है, उसी प्रकार पुरुषार्थ-विहीन व्यक्ति का भाग्य सिद्ध नहीं होता।
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः |
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ||जो व्यक्ति कर्मठ नहीं है, अपना धर्म नहीं निभाता, वह शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल है, धनी होते हुए भी गरीब है और पढ़ा-लिखा होते हुए भी अज्ञानी है।
जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं ,
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति |
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं ,
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ||अच्छी संगति जीवन का आधार है। यदि अच्छे मित्र साथ हैं, तो मूर्ख भी ज्ञानी बन जाता है, झूठ बोलने वाला सच बोलने लगता है। अच्छी संगति से मान-प्रतिष्ठा बढ़ती है, पापी दोषमुक्त हो जाता है, मन प्रसन्न रहता है और यश सभी दिशाओं में फैलता है। मनुष्य का कौन-सा भला नहीं होता?
चन्दनं शीतलं लोके , चन्दनादपि चन्द्रमाः |
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ||चन्दन को संसार में सबसे शीतल माना गया है, लेकिन कहते हैं चंद्रमा उससे भी अधिक शीतलता देता है। लेकिन इन सबके अलावा अच्छे मित्रों का साथ सबसे अधिक शीतलता एवं शांति प्रदान करता है।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ||“तेरा-मेरा” करने वाले लोगों की सोच उन्हें बहुत छोटा बना देती है, जबकि जो व्यक्ति सभी का हित सोचते हैं, उदार चरित्र के होते हैं और उनके लिए पूरा संसार ही परिवार होता है।
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् |
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||महर्षि वेदव्यास ने अपने पुराणों में दो बातें कही हैं— पहली, दूसरों का भला करना पुण्य है, और दूसरी, दूसरों को अपनी वजह से दुखी करना ही पाप है।
विद्या मित्रं प्रवासेषु , भार्या मित्रं गृहेषु च |
व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च ||यात्रा के समय ज्ञान एक मित्र की तरह साथ देता है, घर में पत्नी एक मित्र की तरह साथ देती है, बीमारी के समय दवाएँ साथ निभाती हैं, और अंत समय में धर्म सबसे बड़ा मित्र होता है।
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् |
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ||जल्दबाजी में कोई कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि बिना सोचे किया गया कार्य घर में विपत्तियों को आमंत्रण देता है। जो व्यक्ति सहजता से सोच-समझकर विचार करके अपना काम करते हैं, लक्ष्मी स्वयं ही उनका चुनाव कर लेती है।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।“तेरा-मेरा” करने वाले लोगों की सोच संकीर्ण होती है। जबकि उदार चरित्र वाले लोगों के लिए संपूर्ण विश्व ही उनका परिवार होता है।
छायामन्यस्य कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वयमातपे।
फलान्यपि परार्थाय वृक्षाः सत्पुरुषा इव।।वृक्ष स्वयं धूप में खड़े रहकर दूसरों को छाया प्रदान करते हैं और उनके फल भी दूसरों के लिए होते हैं। सज्जन पुरुष भी इसी प्रकार दूसरों के लिए जीते हैं।
उद्यमेनैव सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।सफलता केवल परिश्रम से ही प्राप्त होती है, केवल इच्छाएँ रखने से नहीं। जैसे सोते हुए शेर के मुँह में हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता।
न कश्चिदपि जानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्।।कोई भी यह नहीं जानता कि कल किसके साथ क्या होगा। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति वह कार्य आज ही कर लेता है जिसे कल करना हो।
वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैः
सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला
मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।।एक योगी राजा से कहता है— “मैं यहाँ आश्रम में वल्कल पहनकर संतुष्ट हूँ, जबकि आप रेशमी वस्त्रों में। हमारा संतोष समान है, इसमें कोई अंतर नहीं। वास्तव में वही निर्धन है जिसकी इच्छाएँ अनंत हैं। जब मन संतुष्ट है, तो कौन धनी और कौन गरीब?”
उपकारिषु यः साधुः साधुत्वे तस्य को गुणः।
अपकारिषु यः साधुः स साधुरिति कीर्तितः।।यदि कोई केवल उन लोगों के प्रति अच्छा है जो उसके प्रति अच्छे हैं, तो इसमें क्या विशेषता है? सच्चा सज्जन वही है जो अपने अपकारियों के साथ भी भलाई से पेश आता है।
सदयं हृदयं यस्य भाषितं सत्यभूषितम्।
कायः परहिते यस्य कलिस्तस्य करोति किम्।।जिसका हृदय करुणा से भरा है, जिसकी वाणी सत्य से युक्त है और जिसका शरीर सदैव परोपकार में संलग्न है, उसे कलियुग कोई हानि नहीं पहुँचा सकता।
आचार्यात् पादमादत्ते पादं शिष्यः स्वमेधया।
पादं सब्रह्मचारिभ्यः पादं कालक्रमेण च।।एक शिष्य अपने गुरु से केवल एक चौथाई ज्ञान प्राप्त करता है, एक चौथाई वह स्वयं के अध्ययन से अर्जित करता है, एक चौथाई अपने सहपाठियों से सीखता है, और शेष ज्ञान समय के साथ प्राप्त करता है।
न किञ्चित् सहसा कार्यं कार्यं कार्यविदा क्वचित्।
क्रियते चेत् विविच्यैव तस्य श्रेयः करस्थितम्।।कोई भी कार्य जल्दबाजी में नहीं करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति सोच-विचार कर कार्य करता है, तो सफलता निश्चित रूप से उसके हाथों में होती है।
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।।एक दुष्ट व्यक्ति को परिवार की भलाई के लिए त्याग देना चाहिए, परिवार को गाँव की भलाई के लिए त्याग देना चाहिए, गाँव को देश के लिए त्याग देना चाहिए और आत्म-साक्षात्कार के लिए पूरी पृथ्वी को भी त्याग देना चाहिए।
संस्कृत सुभाषित – 4
क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्॥क्षण-क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए। क्षण को नष्ट करके विद्याप्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता।
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः।।सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो। ऐसा सत्य मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद हो। उसी प्रकार ऐसा झूठ भी मत कहो जो सबको प्रिय लगे। यही सनातन धर्म है।
सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।
यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम।।यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है, फिर भी केवल वही सत्य बोलना चाहिए जिससे सबका कल्याण हो। मेरे (नारद के) विचार में वही सत्य है जो सभी के हित में हो।
- हनुमान जी के पावरफुल श्लोक
- 30 प्रसिद्ध भगवद्गीता के श्लोक
- कर्पूर गौरम करुणावतारं श्लोक
- नवजात शिशु के स्वागत श्लोक
- 25 नित्य पारायण श्लोक
- गणेश जी श्लोक
- ज्ञान पर संस्कृत श्लोक
- घमंड पर संस्कृत श्लोक
- त्याग पर संस्कृत श्लोक
- प्रेम पर संस्कृत श्लोक
- धैर्य पर संस्कृत श्लोक
- उदारता पर संस्कृत श्लोक
- कर्म पर संस्कृत श्लोक
- सत्संगति पर संस्कृत श्लोक
- तपस्या पर संस्कृत श्लोक
- विद्या पर संस्कृत में 5 श्लोक
- श्री हनुमत् प्रार्थना श्लोक
- श्री रामचंद्र के सभी संस्कृत श्लोक
- धर्म पर संस्कृत श्लोक
- कर्म पर गीता के श्लोक
- दान पर श्लोक
- कलयुग के श्लोक
- नवरात्रि संस्कृत श्लोक
- चरित्र पर संस्कृत श्लोक