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अवधूत अवतार (Avadhoot Avatar) – शिव का निष्काम, निर्विकार और निर्वस्त्र ज्ञानरूप

By Admin

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🔱 अवधूत अवतार – शिव का निष्काम, निर्विकार और निर्वस्त्र ज्ञानरूप

भगवान शिव को महायोगी, औघड़, अघोरी और तांत्रिक कहा गया है, लेकिन जब वे अवधूत रूप में प्रकट होते हैं, तब वे उन सभी रूपों से परे हो जाते हैं। यह वह अवस्था है जहाँ शिव किसी सामाजिक बंधन, नियम, वेष, आचार या परंपरा में नहीं बंधते। वे निर्विकार, निर्वस्त्र, निष्काम और पूर्ण आत्मज्ञानी बन जाते हैं। उनका यह रूप केवल ज्ञान का नहीं, स्वतंत्रता का साक्षात रूप है — जहां न पूजा है, न पूजा कराने वाला; केवल वह शुद्ध ब्रह्म चेतना जो स्वयं को अनुभव कर रही हो।

अवधूत का अर्थ होता है — वह जो धूलि को भी त्याग चुका हो। जो मोह, माया, अहंकार, नाम, रूप, जाति, कर्म — इन सभी को लांघ चुका हो। जब संसार में लोग धर्म को केवल दिखावा मानने लगे, जब योग केवल क्रिया बन गया, और ज्ञान केवल वाद-विवाद तक सीमित हो गया — तब भगवान शिव ने एक बार फिर पृथ्वी पर प्रकट होकर संसार को बताना चाहा कि ईश्वर को पाने के लिए किसी बाहरी आवरण की आवश्यकता नहीं होती, केवल स्वयं का बोध ही पर्याप्त है।

भगवान शिव ने अवधूत अवतार तब धारण किया जब एक बार हिमालय के आश्रमों में रहने वाले मुनियों ने घोर तपस्या कर अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं, किंतु वे अहंकार में आ गए। वे सोचने लगे कि उन्होंने सब जान लिया, सब पा लिया। उन्होंने ब्रह्म को केवल एक बौद्धिक समझ बना लिया। तब शिव ने यह सिद्ध करने के लिए कि ब्रह्म ज्ञान प्रदर्शन नहीं, अनुभव की बात है, एक अत्यंत रहस्यमय, निर्वस्त्र, शरीर पर भस्म लगाए, केशराशि बिखरी, और अलौकिक तेज से युक्त अवधूत रूप में इन मुनियों के सामने प्रवेश किया।

अवधूत अवतार (Avadhoot Avatar) – शिव का निष्काम, निर्विकार और निर्वस्त्र ज्ञानरूप

जब मुनियों ने देखा कि यह एक असभ्य, अनियंत्रित, और सामाजिक नियमों की अवहेलना करने वाला व्यक्ति है, तो उन्होंने क्रोधपूर्वक उसकी उपेक्षा की। किसी ने कहा – “यह पागल है”, किसी ने कहा – “यह साधु का रूप बिगाड़ रहा है।” किंतु उसी समय उनके आश्रम में आग लग गई, पशु भागने लगे, और मानसिक अशांति फैल गई। तब उन मुनियों को ज्ञात हुआ कि यह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, बल्कि स्वयं महादेव हैं – जो अवधूत रूप में उन्हें उनका अहंकार दिखाने आए हैं।

अवधूत शिव ने कहा – “तप वह नहीं जो देह को पीड़ा दे, ज्ञान वह नहीं जो वाणी में सीमित हो। यदि तुमने स्वयं को जाना होता, तो तुम मुझे अलग नहीं समझते। मैं कोई दूसरा नहीं, तुम्हारे भीतर का वह तुम हूँ, जो मुक्त है – बंधनरहित, नियमरहित, स्वरहित, स्वरूपरहित। जब तुम स्वयं को जान लेते हो, तभी तुम मुझे जान पाते हो।”

यह सुनकर मुनियों की आंखें खुल गईं। उन्होंने अपने कर्मों पर लज्जा की, और शिव के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी। तब शिव ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा – “अब जाओ, और वह साधना करो जो तुम्हें तुम्हारे भीतर से मुक्त करे। धर्म बाहर नहीं, भीतर जन्म लेता है। जब तक तुम स्वयं के झूठे बंधनों से मुक्त नहीं होते, तब तक कोई मुक्ति संभव नहीं।”

अवधूत रूप में शिव केवल एक साधु नहीं, एक प्रतीक हैं — आत्मस्वरूप में स्थित पूर्ण पुरुष। न उन्हें भूख लगती है, न प्यास, न वे किसी नियम से बंधते हैं, और न किसी नाम या जाति में विश्वास रखते हैं। उनका अस्तित्व केवल एक ही बात कहता है — “मैं केवल हूँ।” न मैं शरीर हूँ, न नाम, न रूप — मैं केवल साक्षी हूँ। मैं वही हूँ जो ब्रह्मा के पहले था, और जो प्रलय के बाद भी रहेगा।

अवधूत रूप के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने कभी-कभी शव भूमि में ध्यान लगाया, कभी श्मशान में तांडव किया, तो कभी भूत, प्रेत, पिशाचों को भी उपदेश दिए। यह सब किसी प्रदर्शन के लिए नहीं था, बल्कि यह यह दर्शाने के लिए था कि जगत का कोई भी स्वरूप उन्हें स्पर्श नहीं कर सकता। वे निर्लेप हैं, जैसे कमल की पंखुड़ी पर टिकी हुई जल की बूँद — जो जल से जुड़ी होती है, फिर भी उस पर टिकती नहीं।

तंत्र परंपरा में अवधूत को पूर्ण सिद्ध योगी कहा गया है — जो न मृत्यु से डरता है, न जीवन से आकर्षित होता है। वह जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, और मत्सर — इन सभी को पार कर चुका होता है। वह समाज में होते हुए भी समाज से अलग होता है। वह बोलता भी है, पर भीतर मौन होता है। चलता भी है, पर भीतर स्थित होता है। यह वह अवस्था है जिसे वेद कहते हैं — “नेति, नेति” — न यह, न वह – केवल ‘तत् त्वम् असि’ – ‘तू ही वह है।’

भगवान शिव का यह रूप आज के संसार में सबसे अधिक प्रासंगिक है — जहाँ व्यक्ति धर्म के नाम पर दिखावा करता है, ध्यान के नाम पर प्रदर्शन, और साधना के नाम पर व्यापार। अवधूत हमें याद दिलाते हैं कि परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग भीतर जाता है, बाहर नहीं। उनका रूप यह भी सिखाता है कि जब हम समाज, शरीर, और नाम-रूप के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं — तभी शिव हमारे भीतर जागते हैं।

आज भी कुछ तांत्रिक संप्रदाय और अघोरी परंपरा के साधक अवधूत अवतार को अपना आराध्य रूप मानते हैं। वे शिव की पूजा केवल मंदिर में नहीं, बल्कि आत्मा में करते हैं। वे कहते हैं – “यदि भीतर शिव नहीं, तो बाहर कोई शिव नहीं।”

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