यतिनाथ अवतार (Yatinath Avatar) – शिव का परम योग, तप और त्याग रूप
जब-जब धरती पर धर्म डगमगाया, जब अधर्म ने तप, संयम और साधना के मार्ग को कमजोर करने का प्रयास किया, तब-तब भगवान शिव ने किसी न किसी रूप में अवतरित होकर लोकों को दिशा दी। ऐसा ही एक अवतार है — यतिनाथ, जहाँ शिव स्वयं सन्यास और संयम का मूर्त रूप बनकर प्रकट होते हैं। यह अवतार दिखाता है कि भले ही संसार में कितना भी मोह हो, कितनी भी माया फैली हो, एक साधक यदि सत्य, संयम और साधना के मार्ग पर टिक जाए, तो वह स्वयं शिव का स्वरूप बन जाता है।
यतिनाथ अवतार की कथा अत्यंत रहस्यमयी है। यह वह समय था जब पृथ्वी पर भौतिकता और विलासिता का बोलबाला हो चला था। ऋषियों की तपोभूमियाँ उजड़ रही थीं, युवाओं का मन संयम और साधना से हटकर भोग-विलास में लिप्त हो गया था। ज्ञान के स्थान पर प्रदर्शन, और तप के स्थान पर अहंकार को महत्व मिलने लगा था। ऐसे समय में शिव ने संसार को यह सिखाने के लिए कि सन्यास केवल वस्त्र नहीं, बल्कि दृष्टि है, स्वयं यतिनाथ के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होने का संकल्प किया।

यतिनाथ – यानी यति (सन्यासी) + नाथ (स्वामी)। वह जो इंद्रियों पर विजय पा चुका हो, जो भोगों से ऊपर उठ चुका हो, और जो केवल ब्रह्म के ध्यान में स्थित हो – वही यतिनाथ कहलाता है। भगवान शिव ने एक दिव्य तपस्वी ब्राह्मण के घर पुत्र रूप में जन्म लिया। बाल्यकाल से ही उनका मन बाहरी दुनिया में नहीं रमता। वे चुपचाप बैठे रहते, मौन साधना में लीन रहते और आंखों से ही मानो ध्यान करते। उनके माता-पिता आश्चर्यचकित होते थे कि यह बालक न तो खिलौनों में रुचि रखता है, न स्वाद में, न खेल में, न ही संवाद में। वे धीरे-धीरे समझने लगे कि यह कोई साधारण बालक नहीं।
किशोर अवस्था में पहुँचते ही यतिनाथ ने घर, परिवार, समाज – सब कुछ त्याग दिया। उन्होंने मस्तक पर भस्म लगाए, हाथ में कमंडल और त्रिशूल लिया, और हिमालय की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में जब कोई उन्हें रोकने का प्रयास करता, वे केवल एक ही वाक्य कहते – “जो मुझे रोकता है, वह मुझे संसार में बाँधता है, और मैं तो शिव की ओर बढ़ रहा हूँ।”
उनका यह जीवन अत्यंत कठोर तप और संन्यास का था। उन्होंने ना तो शरीर की भूख की चिंता की, ना सर्दी-गर्मी की। कभी हिमगिरी की गुफाओं में ध्यान करते, तो कभी निर्जन वनों में ब्रह्म का स्मरण। उन्होंने पांच इंद्रियों को, छः भावनाओं को, और आठ प्रकार के मोह को त्यागकर अपने भीतर शिव को जाग्रत किया।
यतिनाथ के तप का तेज इतना प्रखर था कि देवता तक चकित हो गए। इंद्र ने सोचा कि कहीं यह कोई असुर तो नहीं जो स्वर्ग को जीतना चाहता हो। उन्होंने कामदेव को भेजा, जिन्होंने यति के ध्यान को भंग करने का प्रयास किया। वसंत की सुगंध, मोहिनी अप्सराएँ, मधुर संगीत, सबकुछ प्रयुक्त किया गया — लेकिन यतिनाथ की साधना अडिग रही। उन्होंने अपनी आंखें खोलीं और केवल एक दृष्टि से समस्त माया को भस्म कर दिया। उस क्षण देवताओं को ज्ञात हुआ कि यह कोई साधक नहीं, स्वयं महादेव हैं, जो यतिनाथ रूप में तप कर रहे हैं।
इसके पश्चात यतिनाथ केवल वनवासी नहीं रहे, वे गुरु बन गए। उन्होंने उन भटके हुए ब्राह्मणों, संन्यासियों और युवाओं को सिखाया कि सन्यास केवल वस्त्रों का त्याग नहीं, मनोविकारों का परित्याग है। उन्होंने यह बताया कि सच्चा साधक वही है जो भीतर से मौन हो, जिसने अपने मन को जीत लिया हो, और जो संसार के मध्य रहकर भी असंग बना रहे।
उनके प्रवचनों ने अनेक राजा-महाराजाओं को भी प्रभावित किया। उन्होंने तप का, ध्यान का, और संयम का महत्त्व बताया – विशेषकर उस समय जब समाज भौतिकता के जाल में फँसता जा रहा था। उन्होंने अनेक स्थानों पर ध्यानपीठ स्थापित किए, जो आज भी भारत और नेपाल में “यतिनाथ मठ” के रूप में विख्यात हैं। वहाँ शिव का ध्यानमग्न रूप प्रतिष्ठित है, जहाँ वे योगमुद्रा में स्थित हैं – आँखें बंद, त्रिशूल पास में, और हृदय में केवल ब्रह्म की ज्योति।
यतिनाथ अवतार यह भी दर्शाता है कि शिव केवल तांडव और शक्ति के देव नहीं, वे योग और आत्मज्ञान के भी परम स्रोत हैं। जब संसार में ज्ञान की जगह केवल सूचना रह जाए, जब साधना केवल प्रदर्शन बन जाए, तब शिव को यतिनाथ बनकर ही आना पड़ता है – ताकि वे संसार को यह स्मरण करा सकें कि ईश्वर का मार्ग आंतरिक है, न कि बाहरी।
आज भी यह अवतार उन साधकों के लिए आदर्श है जो संसार से विमुख हो कर आत्मज्ञान की खोज में हैं। शिव के इस रूप में वह ऊर्जा है जो शरीर को साधन बनाकर आत्मा को परमात्मा से जोड़ती है। यतिनाथ हमें सिखाते हैं कि जो मन, वाणी और कर्म – तीनों से ब्रह्म को धारण करे – वही सच्चा साधक है, वही यति है, और वही शिव का स्वरूप है।