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शरभावतार (Sharabha Avatar) – जब शिव ने शिवत्व से भी आगे का रूप लिया

By Admin

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🦁 शरभावतार (Sharabha Avatar) – जब शिव ने शिवत्व से भी आगे का रूप लिया

भगवान शिव के 19 अवतारों में शरभावतार वह रूप है जहाँ शिव ने अपनी ही लय को तोड़कर, अपने भीतर से एक ऐसे असीम रूप को प्रकट किया जो किसी तांडव से भी आगे था। यह अवतार इसलिए सबसे रहस्यमय माना जाता है क्योंकि यह ईश्वर के भीतर छिपे उस बिंदु को दर्शाता है जब ब्रह्मांड की रक्षा के लिए स्वयं शिव को भी अपनी मर्यादाओं से ऊपर उठना पड़ा। शरभावतार केवल एक असुर का संहार नहीं था, यह आत्मसत्ता का वह बिंदु था जहाँ क्रोध, संयम, रहस्य, और अधिकार सब एक साथ प्रकट हुए।

शरभावतार की कथा जुड़ी है भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार से। जब हिरण्यकश्यप का अंत करने के लिए विष्णु ने उग्र और अपरिवर्तनीय नरसिंह रूप लिया, तब उन्होंने असुर का अंत तो कर दिया, लेकिन उनकी उग्रता और तांडव शांत नहीं हुआ। वे इतने क्रोधित और अजेय हो गए कि देवताओं, ऋषियों और यहां तक कि स्वयं लक्ष्मीजी तक भयभीत हो उठीं। ब्रह्मांड डगमगाने लगा और कहीं न कहीं यह महसूस हुआ कि विष्णु का यह रूप अब संतुलन नहीं रख पा रहा। तब सभी देवता भगवान शिव की शरण में पहुँचे और निवेदन किया कि वे इस उग्रता को शांति में बदलें।

भगवान शिव ने स्थिति को गंभीरता से देखा। यह केवल विष्णु को रोकना नहीं था, यह ब्रह्मांड की मर्यादा की पुनः स्थापना थी। तब शिव ने अपने भीतर से एक अति विकराल, उग्र और अभूतपूर्व रूप को जन्म दिया – जिसे शरभ कहा गया। शरभ एक ऐसा दिव्य प्राणी था जिसमें सिंह, पक्षी और मानव के गुणों का सम्मिलन था। उसका शरीर सिंह के समान था, परंतु उसके आठ पैर थे जो उसे हर दिशा में गति प्रदान करते थे। उसके पंख विशाल और बिजली के समान तीव्र थे, जिससे वह आकाश और पृथ्वी दोनों पर अधिपत्य रखता था।

शरभ न केवल भौतिक रूप से विशाल था, बल्कि उसकी उपस्थिति में ही वातावरण बदल गया। वह शिव का ऐसा रूप था जो स्वयं ‘नाश’ को भी नियंत्रित कर सकता था। जैसे ही शरभ ने नरसिंह के सामने अपने रूप का प्रदर्शन किया, पूरा ब्रह्मांड थम गया। शरभ ने नरसिंह को लपेट लिया, पकड़ लिया, और अपनी शक्ति से उनकी उग्रता को सोखना शुरू किया। यह टकराव दो महान शक्तियों का नहीं, बल्कि दो ब्रह्मांडीय भावों का था – जहाँ शिव का उद्देश्य था शांति, और विष्णु का स्वरूप बना था विनाश

कुछ शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि नरसिंह शरभ के अंदर समा गए और शिव ने उन्हें शांत कर दिया। तो कुछ मत मानते हैं कि नरसिंह ने स्वयं शरभ के चरणों में आत्मसमर्पण किया, यह स्वीकारते हुए कि शिव का यह रूप अत्यधिक है और स्वयं विष्णु भी उसकी तुलना में शांत प्रतीत होते हैं। यह सिद्ध करता है कि शरभावतार केवल शक्ति नहीं, नियंत्रण की चरम सीमा है।

शरभ का यह स्वरूप बाद में वैरभद्र, कालभैरव और अष्टभुजी तंत्ररूपों में भी प्रकट हुआ, जहाँ उसका कार्य केवल रचना या विनाश नहीं, बल्कि शक्ति के संतुलन को बनाए रखना था। शरभावतार यह संदेश देता है कि जब शक्ति अपनी मर्यादा से बाहर निकलती है, तो उसे कोई बाहरी नहीं, बल्कि उससे भी ऊँची चेतना नियंत्रित करती है – और वह चेतना शिव है।

आज भी दक्षिण भारत के कुछ तांत्रिक शिव मंदिरों में शरभ की पूजा होती है, विशेषकर तमिलनाडु के कुम्भकोणम क्षेत्र में स्थित शरभेश्वर मंदिर इसका उदाहरण है। वहां शरभ को एक ऐसे रक्षक के रूप में पूजा जाता है जो ब्रह्मांड के सबसे बड़े उग्र रूप को भी शांत कर सकता है। तांत्रिक साधक मानते हैं कि शरभ का ध्यान करने से आत्मिक शक्ति, वाणी पर नियंत्रण, और आध्यात्मिक रक्षा प्राप्त होती है।

शरभेश्वर या शरभावतार का यह रूप यह भी बताता है कि शिव केवल योगी, सन्यासी या वैरागी नहीं हैं। वे ब्रह्मांड की हर अवस्था के रक्षक हैं – जब रचना हो, वे सृष्टिकर्ता बनते हैं; जब संतुलन बिगड़े, वे तांडव करते हैं; और जब विनाश भी बेकाबू हो जाए, तो वे शरभ बनकर विनाश को ही वश में करते हैं।

यह अवतार इस बात का प्रतीक है कि ईश्वर की सबसे बड़ी शक्ति उनकी विवेकशीलता है, और जब समय आता है, तो वे किसी भी रूप में प्रकट हो सकते हैं — भले ही वह रूप भयावह हो, लेकिन उसका उद्देश्य हमेशा रक्षा और मर्यादा की स्थापना होता है।

शरभावतार केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि एक चेतावनी है – शक्ति चाहे कितनी भी महान क्यों न हो, उसे मर्यादा में रहना ही होगा। जब शक्ति में अहंकार आ जाए, तो शिव शरभ बन जाते हैं। यह रूप हर उस समय प्रकट होता है जब ब्रह्मांड को आवश्यकता होती है शिवत्व की एक नई परिभाषा की।

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