भैरव अवतार (Bhairava Avatar) – जब शिव ने ब्रह्मा का अहंकार तोड़ा
भगवान शिव के 19 अवतारों में से एक अत्यंत रहस्यमयी, रौद्र और तांत्रिक स्वरूप है — भैरव अवतार। यह अवतार केवल शक्ति और विनाश का प्रतीक नहीं, बल्कि अधर्म, अहंकार और ब्रह्मांडीय मर्यादा के रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित है। भैरव केवल भगवान शिव का एक उग्र रूप नहीं, बल्कि सृष्टि के संतुलन का वह चेहरा है, जो अधर्म और अहंकार का अंत कर न्याय की स्थापना करता है। इस अवतार की उत्पत्ति की कथा गहराई से जुड़ी है ब्रह्मा जी के अहंकार और देवताओं की सीमाओं से।
प्राचीन काल में एक समय ऐसा आया जब त्रिदेवों में से एक, भगवान ब्रह्मा, अपनी सृष्टिकर्ता भूमिका को लेकर अत्यधिक गर्वित हो गए। उन्होंने स्वयं को सबसे बड़ा देवता मान लिया और यहां तक कह दिया कि उन्हें ही पूजा जाना चाहिए। उन्होंने अपने पाँचवें मुख से ऐसी बातें कहनी शुरू कर दीं जो शिव के प्रति अनादर से भरी हुई थीं। यह स्थिति ब्रह्मांडीय मर्यादा के विपरीत थी, क्योंकि त्रिदेवों में संतुलन और विनम्रता आवश्यक है। ब्रह्मा का यह घमंड सृष्टि के लिए एक गंभीर संकट बन गया।
जब यह अहंकार अपनी सीमा लांघ गया, तब भगवान शिव ने उसे रोकने का निश्चय किया। वे अत्यंत क्रोधित हुए और अपने क्रोध से एक भयंकर रूप प्रकट किया — यही रूप था भैरव। भैरव का प्रकट होना केवल एक घटना नहीं, बल्कि चेतावनी थी कि ब्रह्मांड में कोई भी—even ब्रह्मा—मर्यादा से ऊपर नहीं है।
भैरव का स्वरूप अत्यंत भयानक था। उनके शरीर पर भस्म लगी हुई थी, हाथों में त्रिशूल, डमरू और खप्पर थे, और उनकी आंखों से अग्नि निकल रही थी। उनकी उपस्थिति मात्र से समस्त लोक कांप उठे। जब भैरव ब्रह्मा के सामने प्रकट हुए, तो वहां भय और स्तब्धता छा गई। भैरव ने बिना देर किए ब्रह्मा के पाँचवें सिर को काट दिया — वही सिर जिससे घमंड और अपमान की वाणी निकली थी।
इस घटना के बाद ब्रह्मा को अपनी गलती का अहसास हुआ। वे अत्यंत शर्मिंदा और भयभीत हो उठे। भैरव का यह कृत्य दर्शाता है कि शिव अन्याय के विरुद्ध कभी मौन नहीं रहते — जब भी अधर्म अपनी सीमाएं पार करता है, तब वह स्वयं किसी रूप में प्रकट होकर संतुलन स्थापित करते हैं।
लेकिन ब्रह्मा के सिर को काटना एक ब्रह्महत्या जैसा कार्य माना गया, और भैरव को उस पाप का दोष लग गया। इस दोष से मुक्ति पाने के लिए भगवान शिव ने भैरव को एक नियम दिया — उन्हें एक भिक्षुक (भिक्षाटन) के रूप में पूरी पृथ्वी पर भ्रमण करना होगा, और जब तक वह दोष समाप्त न हो जाए, तब तक वह काशी नगरी में प्रवेश नहीं कर सकेंगे।
भैरव हाथ में खप्पर लेकर भिक्षाटन करते रहे। उनका यह रूप “भिक्षाटन भैरव” कहलाया। जब वे पृथ्वी के विभिन्न तीर्थों में घूमते हुए अंततः काशी (वाराणसी) पहुंचे, तो उनके पाप का खप्पर वहीं गिर पड़ा और ब्रह्महत्या का दोष समाप्त हो गया। तभी से यह माना जाता है कि काशी केवल शिव की ही नहीं, काल भैरव की भी नगरी है। वहां काल भैरव का मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है और आज भी लोग मानते हैं कि काशी के रक्षक स्वयं काल भैरव हैं।
भैरव का यह अवतार कई स्तरों पर रहस्य और तंत्र का प्रतीक भी है। विशेष रूप से तांत्रिक परंपराओं में भैरव को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। उन्हें ‘ज्ञान का रक्षक’, ‘मार्गदर्शक’ और ‘माया से मुक्ति दिलाने वाला’ कहा गया है। वे केवल भय के देवता नहीं, बल्कि बंधन से मुक्ति और आत्मसाक्षात्कार की दिशा में मार्गदर्शन करने वाले गुरुतत्त्व हैं।
भारत के विभिन्न भागों में भैरव के अनेक रूपों की पूजा की जाती है — जैसे काल भैरव, बटुक भैरव, स्वर्णाकार भैरव, आदि। उन्हें रात्रि का देवता माना जाता है और तांत्रिक विधियों में इनकी उपासना विशेष फलदायी मानी जाती है। काशी, उज्जैन, और कालेश्वर जैसे स्थानों में भैरव के मंदिर विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।