भारत में भगवान शिव के अनगिनत मंदिर हैं, लेकिन गुजरात के वडोदरा से करीब 85 किलोमीटर दूर जंबूसर तहसील के कावी-कंबोई गांव में स्थित स्तंभेश्वर महादेव मंदिर एक अनोखी रहस्य और श्रद्धा की मिसाल है। यह मंदिर ऐसा है जो दिन में दो बार समुद्र की लहरों में पूरी तरह डूब जाता है और कुछ समय बाद वापस प्रकट हो जाता है।
पौराणिक कथा: ताड़कासुर वध और स्तंभेश्वर महादेव शिवालय की स्थापना
पुराणों में वर्णित एक अत्यंत रोचक और गूढ़ कथा जुड़ी है स्तंभेश्वर महादेव मंदिर से, जो न केवल शिवभक्तों के लिए आस्था का केंद्र है, बल्कि भगवान शिव की लीलाओं और उनके पुत्र कार्तिकेय की वीरता का जीवंत प्रमाण भी है।
ताड़कासुर की कठोर तपस्या और वरदान
प्राचीन काल में ताड़कासुर नामक एक असुर हुआ करता था। वह अत्यंत पराक्रमी था और उसे अपार शक्ति की लालसा थी। इसी उद्देश्य से वह घोर तपस्या में लीन हो गया। उसकी तपस्या इतनी कठोर और भयंकर थी कि स्वर्गलोक तक उसकी ऊर्जा पहुंचने लगी। अंततः भगवान शिव उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और ताड़कासुर के समक्ष प्रकट होकर बोले, “वत्स, मांगो जो वर चाहिए।”
ताड़कासुर अत्यंत चतुर था। उसने ऐसा वरदान मांगा जिसे सुनकर स्वयं शिव भी क्षणभर के लिए गंभीर हो उठे। उसने कहा, “प्रभो! मुझे यह वरदान दीजिए कि मेरा वध केवल आपका पुत्र कर सके, और वह भी तब जब उसकी आयु मात्र छह दिन की हो।”
भगवान शिव ने उसे यह असाधारण वरदान दे दिया।
ताड़कासुर का अत्याचार
वरदान प्राप्त होते ही ताड़कासुर का स्वरूप बदल गया। वह अहंकार से भर उठा और देवताओं, ऋषियों, मुनियों और साधकों पर अत्याचार करने लगा। उसने तीनों लोकों में आतंक फैला दिया। यज्ञ, तप, साधना और धर्माचरण सभी बाधित हो गए। कोई भी उसे पराजित करने की सामर्थ्य नहीं रखता था, क्योंकि उसकी मृत्यु की शर्त ही असंभव प्रतीत होती थी।
देवताओं की गुहार और कार्तिकेय का जन्म
आख़िरकार सभी देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास पहुँचे और अपनी पीड़ा सुनाई। भगवान शिव ने उनकी रक्षा के लिए शक्ति के साथ योग किया। श्वेत पर्वत नामक स्थान पर एक विशेष कुंड में उनकी ऊर्जा एकत्रित हुई और वहाँ से एक दिव्य बालक प्रकट हुआ, जिसका नाम रखा गया कार्तिकेय।
यह बालक साधारण नहीं था। उसके छह मस्तिष्क, चार नेत्र और बारह भुजाएं थीं। वह शक्ति, बुद्धि और तेज का प्रतीक था। उसके जन्म लेते ही समय का प्रवाह मानो थम गया। मात्र छह दिन की आयु में ही कार्तिकेय युद्ध भूमि की ओर बढ़े।
ताड़कासुर का वध
एक भीषण युद्ध छिड़ा। देवताओं ने पहली बार आशा की कि कोई इस राक्षस का अंत कर सकता है। कार्तिकेय ने अपने अमोघ अस्त्रों और अपार पराक्रम से ताड़कासुर का अंत कर दिया। इस युद्ध के बाद समस्त देवताओं और ऋषियों ने चैन की सांस ली। धरती पर धर्म की पुनः स्थापना हुई।
कार्तिकेय का पश्चाताप और शिवालय की स्थापना
विजय के बाद कार्तिकेय को जब यह ज्ञात हुआ कि ताड़कासुर, भले ही राक्षस था, परंतु वह भगवान शिव का सच्चा भक्त भी था—तो वे अत्यंत मर्माहत हो उठे। उनका मन ग्लानि से भर गया। उन्होंने सोचा, “क्या मैंने एक शिवभक्त का वध कर पाप किया?”
तभी भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने कार्तिकेय को समझाया कि “धर्म की रक्षा के लिए किया गया यह कर्म पाप नहीं है। पर यदि तुम्हारा मन व्यथित है तो उस स्थान पर एक शिवालय की स्थापना करो, जिससे तुम्हें शांति और मोक्ष की अनुभूति होगी।”
कार्तिकेय ने तुरंत उस स्थान पर एक भव्य शिवलिंग की स्थापना की, जहाँ ताड़कासुर का वध हुआ था। बाद में सभी देवताओं ने मिलकर वहाँ महिसागर संगम तीर्थ पर एक विशाल विश्वनंदक स्तंभ की स्थापना की। यही स्थान आगे चलकर स्तंभेश्वर महादेव तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
आज का स्तंभेश्वर तीर्थ
आज भी अरब सागर के तट पर स्थित यह मंदिर इस पौराणिक गाथा की स्मृति को जीवित रखे हुए है। यह न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि एक ऐतिहासिक और दार्शनिक प्रतीक भी है—जहाँ शक्ति, पश्चाताप, करुणा और श्रद्धा एक साथ दिखाई पड़ते हैं।
मंदिर की अनोखी विशेषता

अरब सागर के कैम्बे तट पर स्थित यह मंदिर समुद्र के ज्वार-भाटे के कारण दिन में दो बार जलमग्न हो जाता है। जब ज्वार आता है, तो पूरा मंदिर पानी में समा जाता है और शिवलिंग के दर्शन असंभव हो जाते हैं। जैसे ही ज्वार उतरता है, मंदिर फिर से दिखाई देने लगता है और भक्त दर्शन कर सकते हैं।
यह चमत्कारी प्रक्रिया सदियों से जारी है। यहां आने वाले श्रद्धालुओं को विशेष पर्चे दिए जाते हैं जिनमें ज्वार और भाटे का समय लिखा होता है, ताकि वे सही समय पर दर्शन कर सकें और किसी असुविधा का सामना न करना पड़े।

मंदिर का इतिहास और बनावट
करीब 150 साल पहले खोजा गया यह मंदिर अपने आप में एक अद्भुत धरोहर है। यहां स्थापित शिवलिंग लगभग 4 फुट ऊंचा और 2 फुट व्यास का है। मंदिर के पीछे फैला हुआ विशाल अरब सागर एक भव्य और आध्यात्मिक दृश्य प्रस्तुत करता है।
इस मंदिर का उल्लेख श्री महाशिवपुराण के रुद्र संहिता भाग-2, अध्याय 11, पृष्ठ संख्या 358 में भी मिलता है, जो इसकी पौराणिक महत्ता को दर्शाता है।