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शर्मिष्ठा

By Admin

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शर्मिष्ठा


शुक्राचार्य, दानव राजा वृषपर्व के गुरू थे। देवयानी, शुक्राचार्य की प्रिय पुत्री थी। युवराणी शर्मिष्ठा, वृषपर्व की पुत्री थी। देवयानी और शर्मिष्ठा जिग्री सहेलियाँ थी ।

एक दिन को देवयानी और शर्मिष्ठा, जंगल में विहार के लिए गई थी। उसी जंगल के एक तालाब में दोनों नहाने गई। दोनों ने अपने वस्त्र उतारकर कूल पर रख दिए। इतने में जोरदार हवा के बहने के कारण, दोनों के कपडे तितार बितर होकर मिल गये। शर्मिष्ठा ने पहले तीर पर आकर देवयानी के कपडे पहन लिये। बाद में देवयानी बाहर निकली । उसने इन बदले कपड़ों को देखा। जब उसने देखा कि देवयानी उसके कपडे पहनी हुई है, तब वह शर्मिष्ठा की गलती को दिखाया। दोनों सहेलियाँ एक दूसरे को कोसने लगीं ।

‘तुम जानती हो न कि मेरे पिताजी इस राज्य के अध्यक्ष हैं’ शमिष्ठा ने कहा। ‘तो क्या हुआ? मेरे पिताजी सभी दानवों के गुरु हैं, तुम्हारे पिताजी संग। सभी को मेरे पिताजी के सामने नतमस्तक होना ही पड़ता है।

शर्मिष्ठा

“तुम्हारे पिताजी, याद रख, मेरे पिताजी की वदान्यता पर जीते हैं। दोनों के बीच का झगडा इतना छिड गया कि शर्मिष्ठा की दानव सहे लियों ने देवयानी को एक सूखे कुंए में धकेलकर, उसे अकेली छोड़कर सभी वहाँ से चली गई। वह बेचारी वाहर निकल नहीं पाई। वह उसी कुंए में रह गई। बाहर निकल नहीं पाई ।

तभी वयाती (चक्रवर्ति) उस ओर आया। ये पूरुवंशज थे। यह शिकार खेलने के लिए आया। उसने कुँए से रोने की आवाज सुनी । कुंए में उसने झांककर देखा ।

रोती देवयानी को देखकर, ययाति ने अपने हाथों को सहारा देकर देवयानी को उस कुँए से बाहर निकाला। दोनों ने एक दूसरे का परिचय प्राप्त किया । देवयानी ने तब से वृषपर्व की राजधानी में कदम नहीं रखने का निर्णय लिया ।

देवयानी ने ययाति से प्रेम किया। उसने कहा ‘हे सम्राट आपने मेरा दाहिना हाथ पकड़ा है। धर्मशास्त्र के आनुसार इसका अर्थ यह हुआ है कि तुमने मुझे पत्नी के रुप में स्वीकार किया। मेरा अभिप्राय भी वही है कि तुम ही मेरे लिए श्रेष्ठ वर हो ।

ययाति ने उत्तर दिया कि ‘मैं क्षत्रिय हूँ, तुम ब्राह्मण वाला हो । तुम दानवों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री भी हो। ऐसे में तुमको अपने पिताजी से अनुमति लेनी होगी। ऐसा कहते हुए ययाति चला गया ।

शुक्राचार्य को सारा समाचार मिला था। उसकी पुत्री ने जो वादा किया कि वह राजधानी में कदम नहीं रखेगी, तब शुक्राचार्य ने स्वयं यह निर्णय लिया कि पुत्री के पास आकर उसे समझा बुझाकर राजधानी में ले जायेगा। उसकी पुत्री जो कुँए के पास एक पेड़ के नीचे, बैठी हुई थी, उसके पास शुक्राचार्य पहुंचा ।

देवयानी किसी भी हालत में किसी से भी आदर्श या नीतिपरक विचारों को सुनना नहीं चाह रही थी। उसने अपने पिताजी से कहा कि शर्मिष्ठा बहुत हठी है। देवयानी ने शुक्राचार्य के क्रोध एवं अहंकार को बढ़ाते हुए उससे प्रश्न किया, यथा क्या तुम राजा के वैभव को बढ़ा – चढ़ाकर गुणगान करने वाले चारण व्यवसाई हो? परोपकारी, राजा पर आश्रित परान्नजीवी हो क्या तुम?’

ऐसा कहती हुई वह बहुत वहुत रोने लगी। शुक्राचार्य अपने घायल दम्भ से विचलित हुआ। शर्मिष्ठा ने जो जिद्दी तथा अशिष्ट कुकर्म किया, उसके लिए शुक्राचार्य ने शर्मिष्ठा को सबक सिखाना चाहा ।

देवयानी इसे सुनकर अतिप्रसन्न हुई ।

शुक्राचार्य, सीधे वृषपर्व के पास बिना समय गंवाये गया। उसने राजा से कहा ‘हे राजा! अब आगे मैं तुम्हारी सेवा कभी नहीं कर सकता । तुम्हारे सेवकों को मुझे सामना करना पडा जव तुम्हारे सेवकों ने कच को मारा था। वह मेरा उत्तम शिष्य था जिसने मेरी सेवा बड़ी श्रद्धा के साथ किया करता था तथा वह किसी पाप कर्म से ग्लानि मेहसूस नहीं की। अब तुम्हारी बेटी ने मेरी बेटी देवयानी का अपमान किया, उसे घायल किया। चूंकि मेरी बेटी इस राज्य में रहना नहीं चाहती, इसलिए, मैं भी यहाँ रहना बिलकुल पसंद नहीं करता हूँ।

वृषपर्व, शुक्राचार्य के बिना रह ही नहीं सकते थे। इसलिए वृषपर्व अपने कर्मचारी वर्ग को लेकर देवयानी के पास गया तथा उससे क्षमा माँगी। इतना करने के बावजूद, देवयानी ने एक शर्त पर राजा को क्षमा करने की बात कही। वह इस प्रकार है “जहाँ भी मैं विवाह करके जाऊँगी, वहाँ पर शर्मिष्ठा को मेरी सेविका बनकर आजीवन मेरी सेवा करनी पड़ेगी ।

जब राजा ने शर्मिष्ठा से देवयानी की माँग की बात कही, शर्मिष्ठा ने बेझिझक अपने पिताजी के वास्ते अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार हो गई। उसने अपने पिताजी से कहा “मेरे पिताजी कभी अपने राजगुरु से च्युत नहीं रहेंगे। मेरे कुकर्म के कारण उनको दण्ड नहीं मिलना चाहिए।”

जो निर्णय शर्मिष्ठा ने लिया, वह अत्युत्तम, श्रेष्ठ माना गया ।

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