श्रेष्ठ दान
कुरुक्षेत्र की जीत के बाद पाण्डव राजा युधिष्ठिर ने अश्वमेध कराया था। भारत के सभी राज्यों के राजाओं का स्वागत किया गया था। याग को जिस भांति मनाया गया था, उसके वैभव की प्रशंसा सभी लोग करने लगे थे। युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों, निर्धनों तथा अभागों को बहुत सारा धन एवं भेंट दान में दिया था। सभी को भोजन खिलाया गया। राजाओं ने इस प्रकार की प्रशस्ति की थी कि युधिष्ठिर जैसा लोकोपकारी कोई दूसरा नहीं होगा ।
याग करते समय, कहां से, अचानक यागशाला में एक नेवला आ गया था। उसके शरीर का एक पार्श्व सुवर्ण की भांति झिलमिला, रही थी। वह सभी दर्शकों के बीच खड़ा होकर, उपहास करते हुए हँसा । सभी लोग एक जानवर को एसा हँखते देखकर आश्चर्यचकित हुए। सभी लोगों ने यही माना था कि कोई दैत्य मारने को आया या विध्वंस करने के लिए आया।
लेकिन उस नेवले ने सभी को संदेश दिया, यथा- ‘यहाँ उपस्थित हे श्रेष्ठ राजा, ब्राह्मण वरों, मेरी बात सुनो । युधिष्ठिर के द्वारा दिए जानेवाले भेंट, दान आदि को क्या आप विभवपूर्ण तथा अद्वितीय मान रहे हो? यह दान उस दान के समान नहीं है जो इससे पूर्व एक निर्धन ब्राह्मण ने कभी दिया था। वह बहुत ही श्रेष्ठ था । अब जो दान दिया जा रहा है, वह महत्वहीन है। आप लोग इसकी प्रशंसा इतनी ऊँची आवाज में कर रहे हो?
नेवले ने जवाब देते हुए ऐसा कहा ‘हे विप्रश्रेष्ठ, मैं ने एक भी अपशब्द नहीं कहा। मैं धर्मराज से जलता नहीं हूँ। मेरा अभिप्राय है कि जो दान उस निर्धन ब्राह्मण ने किया था, वैसा दान यहाँ पर किया नहीं जा रहा है। निर्धन ब्राह्मण ने जो दान दिया था. उसके परिणामस्वरूप उस ब्राह्मण की पत्नी, उसके पुत्र एवं पुत्र वधू को स्वर्गलोक में स्थान मिला।
मैं उसका साक्षी हूँ। अब मैं उसका पूरा विवरण प्रस्तुत करता हूँ, आप सब सुनिए’ – कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले एक निर्धन ब्राह्मण ऊँचावृत्ति करके अपना जीवन जी रहा था। वह नीचे गिरे हुए धान को भी उठाता था और खाना बनवाता था। परिवार के सभी सदस्य उस भोजन को बाँटकर खाते थे। जितना एक दिन के लिए चाहिए था, उतना ही वह माँगता था। कभी-कभार उनको जब खाने को कुछ भी नहीं मिलता था, तब जाकर पूरा परिवार भूखों ही रह जाता था। एक बार उस राज्य में अकाल पड़ा। खेती-बाडी के सारे कार्यक्रम वर्षा के घाटे में गये थे। ऐसी स्थिति में निर्धन ब्राह्मण को अनाज का एक दाना भी नहीं मिलता था। वे बहुत बार केवल पानी पीकर पेट भर लेते थे।
एक दिन उसका भाग्य ऐसा खुला कि उसे एक लोटे भर का मक्का धान्य मिला। परिवार के सदस्यों ने दोपहर के भोजन के लिए उसे पीसकर खाने को तैयार रखा। उसी समय एक भूखा ब्राह्मण वहाँ आया । उसे घर के अंदर अतिथि के रूप में बुलाया गया तथा उसे भोजन के लिए स्वागत किया गया। तव अतिथि ने ऐसा कहा
‘मैं एक दरिद्र ब्राह्मण हूँ। मैं वाचना करके अपने परिवार की भूख मिटाता हूँ। मेरे पास जितना है, उतना दूँगा, आप कृपया उसे स्वीकार करके तृप्त होइए ।
पहले दरिद्र ब्राह्मण ने अपने हिस्से का पिसा मक्का परोसा। इससे अतिथि की भूख नहीं मिटी। उसने खाने को कुछ और माँगा। ब्राह्मण ने अपनी पत्नी की ओर दृष्टि दौडाई। उसको अपने पति के संकेत ने सचेत किया और उस गृहिणी ने अपना हिस्सा परोसा। ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से कहा ‘चीटियों भी अपनी पत्नी व संतान के लिए अन्न ले आकर खिलाती हैं। लेकिन मैं तुम्हारे हिस्से को भी छीनकर तुम्हें भूखा छोड़ रहा हूँ। दूसरों के अन्न को छीनकर उनको भूखों सताकर मैं जो दान दे रहा हूँ, इसका मुझे क्या ही फल मिलेगा?
पत्नी ने पति की बात को टोक कर कहा ‘हम दोनों ने दांपत्य जीवन में बंधकर शास्त्रानुरूप अच्छे बुरे, सुख दुःख में साथ रहने का वादा किया। उसके अनुरूप तुम जब भी विपदा में फँस जाते हो, तब तुम्हारी रक्षा करना मेरा दायित्व बनता है। अतिथि को तृप्त करना ही हमारा दायित्व है ।
अतिथि ने दूसरे भाग को भी खा लिया। फिर भी उसकी भूख नहीं मिटी। वह दोबारा खाना माँगने लगा। अब ब्राह्मण के पुत्र की वारी आई। पुत्र ने अतिथि को अपना हिस्सा परोस दिया। ब्राह्मण ने अपने पुत्र से कहा ‘हे वत्स! युवा तथा वृद्ध ही भूख को सहन कर सकते हैं। लेकिन तुम्हारे जैसे बच्चे सह नहीं सकते। मैं तुम्हें भूखा रख रहा हूँ। इसके लिए मुझे तो अपने ही से घृणा हो रही है।’ लेकिन बेटे ने अपने पिता से कहा ‘हे पिताजी ! अतिथि को भरपेट खिलाते समय पिताजी का साथ देना, धर्मानुसार पुत्र का दायित्व बनता है। मैं तो आपका ही हिस्सा हूँ। इसीलिए मेरे खाने का हिस्सा भी आप ही का बनता है। कृपया आप अतिथि के भूख को मिटाकर उन्हें तृप्त करिए ।
अतिथि सब कुछ ध्यानपूर्वक देख रहा था। उसने बच्चे को आशीर्वाद दिया यथा ‘तुम्हारे संस्कारों से मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। भगवान तुम्हारी भला करे।’ अतिथि ने बच्चे के द्वारा दिये गये मक्के को भी खा लिया। फ़िर भी वह भूखा ही दिखाई दिया। उसने पुनः ब्राह्मण की ओर देखते हुए कुछ और मक्के को मंगवाने का संकेत किया। दरिद्र ब्राह्मण को यह नहीं सूझ रहा था कि वह अब अतिरिक्त मक्का कहाँ से लाये इस ब्राह्मण के पेट को भरने के लिए। उसके शंकायुक्त चेहरे को देखकर उसकी बहू ने अपना हिस्सा भी लाकर रख दिया। ब्राह्मण को ऐसा लगा कि वह अपनी बहू के प्रति भी क्रूरता प्रकट कर रहा है। ऐसा दान देते समय उस ब्राह्मण को बहुत बुरा लगा और वह अपनी बहू से कहने लगा ‘अगर मैं तुम्हारा अन्न खींच लूँगा तो मैं पापी बन जाऊँगा । तुम तो अभी उम्र में छोटी हो और इसलिए मेरे या तुम्हारी सासु माँ की भाँति भूखों रह नहीं सकती हो ।
बहू ने अपना भाग सौंपते हुए कहा ‘आप मेरे भगवान के भगवान हो, मेरे नाथ के नाथ हो। अगर आप अतिथि के भुख को दूर करोगे तो आपके सद्व्यवहार के फल में से थोड़ा पुण्य मुझे भी मिलेगा। इसलिए मेरे भाग के अन्न को देकर अतिथि के भूख को दूर कीजिए।
अतिथि ने उसे भी आशीवर्धन दिया। अब खाने के बाद उसके चेहरे से तृप्ति का संकेत मिला। उसने कहा यथा “आपने जो अन्नदान किया, यह इस विश्व में अद्वितीय ही है। देखो, देवतागण तुम लोगों पर स्वर्ग से पुष्पवृष्टि कर रहे हैं। गंधर्व आदि भी तुम लोगों को देखने तथा आशीर्वाद देने यहाँ आये हुए हैं। तुम्हारे दान के कारण तुम्हारे सारे पूर्वजों ने स्वर्ग में स्थान प्राप्त कर ही लिया है। जो भूखे रहते हैं, वे सामान्तया धर्म के पथ को छोड़ देते हैं, लेकिन आप लोग भूखों रहते हुए भी अतिथि के पेट को भरने का धार्मिक काम नहीं छोड़ा। जो लोग राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ करने के बाद के फल को प्राप्त करते हैं, वैस फल आज आपने दान करके प्राप्त किया है। तुम लोगों को स्वर्ग में ले जाने के लिए वहाँ से दिव्यरथ आया हुआ है। भगवान तुम्हारी भला करे ।
अतिथि वहाँ से अदृश्य हुए। नेवले ने उस गाथा को आगे बढ़ाया, यथा ‘इस परिवार जिसने स्वर्गलोक को प्राप्त किया, उसका मैं साक्षी हूँ। क्योंकि जहाँ पर ब्राह्मण ने पिसा हुआ मक्का रखा था, उसके अति निकट कर में बैठा था। जैसे ही मैं ने उस मक्के को सूंगने लगा, मेरा सिर स्वर्ण की भांति चमकने लगा। उसके बाद में उसमें जाकर लोटने लगा और जिस – जिस अंग को आटा लगने लगा, वे सारे अंग भी स्वर्ण की भांति चमकने लगे। मैं अपने पूरे शरीर को स्वर्ण की भांति प्रज्जवलित कराना चाहता हूँ । यह मेरी इच्छा है। इसलिए जहाँ जहाँ दान दिया जाता है, वहाँ वहाँ मैं जाता हूँ। इसके लिए मैं बहुत सोर यागशालाओं में गया जहाँ पर भद्र परिमाण में दान दिये जाते हैं। मुझे पता चला कि यहाँ युधिष्ठिर अद्वितीय रूप में दान दे रहे हैं। लेकिन आप देख रहे हो, मेरा शरीर अभी तक पूर्णतया स्वर्ण की आभा नहीं ले पाया ।
“तुम सभी लोगों ने उस दरिद्र ब्राह्मण की दानशीलता की गाथा सुनी। उस ब्राह्मण के पूरे परिवार ने अपने पास के समस्त को दान में दिया जो उनके जीवित रहने के लिए बहुत ही आवश्यक था। यहाँ युधिष्ठिर ऐसा दान दे रहा है जो बहुत कम है और इसको देने के बाद भी उसके पास अतिरिक्त दौलत रहती है और उसे किसी चीज की कमी अनभूत नहीं होती। हे विप्रवकों! अब आप ही कहिए कि किसका दान सबसे श्रेष्ठ है दरिद्र ब्राह्मण का या युधिष्ठिर का?”
इस गाथा को सुनाकर नेवला अदृश्य हो गया ।