धर्म पर संस्कृत श्लोक : शाश्वत जीवन के सूत्र

धर्म पर संस्कृत श्लोक: धर्म, भारतीय संस्कृति और समाज के मूल स्तंभों में से एक है। यह केवल एक नैतिक आचार संहिता नहीं है, बल्कि व्यक्ति के जीवन को संतुलित, सकारात्मक और सुखी बनाने का मार्ग है। धर्म का पालन न केवल आत्मिक उन्नति की ओर ले जाता है, बल्कि सामाजिक संतुलन और मानवता के कल्याण में भी सहायक होता है। संस्कृत श्लोकों में धर्म का गहरा और व्यापक विश्लेषण किया गया है।

धर्म से संबंधित ये संस्कृत श्लोक जीवन के मूल्यों, नियमों और नैतिक आचरण पर गहन प्रकाश डालते हैं। यहां कुछ महत्वपूर्ण श्लोकों के अर्थ और व्याख्या प्रस्तुत की गई है, जो धर्म की महानता और उसकी आवश्यकता को उजागर करते हैं।

धर्म पर संस्कृत श्लोक | Sanskrit Shlok On Dharma

इस लेख में धर्म पर आधारित संस्कृत श्लोकों को प्रस्तुत किया गया है, साथ ही उनकी व्याख्या भी दी गई है। ये श्लोक धर्म की स्थिरता, महत्व और पालन की आवश्यकता को समझाते हैं।

नवजात शिशु के स्वागत के लिए शास्त्रीय श्लोक

धर्म पर संस्कृत श्लोक
धर्म पर संस्कृत श्लोक

सुखार्थं सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः।
सुखं नास्ति विना धर्मं तस्मात् धर्मपरो भव॥

अर्थ:
सभी प्राणियों की प्रवृत्तियां सुख की प्राप्ति के लिए होती हैं, लेकिन बिना धर्म के सच्चा सुख नहीं मिलता। इस श्लोक में बताया गया है कि सुख की प्राप्ति के लिए धर्म का पालन अत्यंत आवश्यक है। इसलिए, हर व्यक्ति को धर्म के मार्ग पर चलना चाहिए ताकि वे सच्चा सुख प्राप्त कर सकें।

व्याख्या:
यह श्लोक यह समझाता है कि धर्म के बिना सुख की प्राप्ति असंभव है। सुख की खोज में लगे हर व्यक्ति को धर्म का पालन करना चाहिए क्योंकि धर्म ही सच्चे सुख की कुंजी है। धर्म की उपेक्षा करने पर केवल तात्कालिक सुख मिलता है, जबकि सच्चा और स्थायी सुख धर्म के पालन से ही प्राप्त होता है।


तर्कविहीनो वैद्यः लक्षण हीनश्च पण्डितो लोके।
भावविहीनो धर्मो नूनं हस्यन्ते त्रीण्यपि॥

अर्थ:
तर्कहीन वैद्य, लक्षणहीन पंडित, और भावरहित धर्म — ये सभी समाज में हंसी के पात्र बनते हैं। इस श्लोक के अनुसार, इन तीनों चीजों में विशेष रूप से धर्म में भावना की कमी नहीं होनी चाहिए।

व्याख्या:
इस श्लोक में कहा गया है कि यदि वैद्य तर्कहीन हो, पंडित लक्षणहीन हो, या धर्म भावना से रहित हो, तो ये सभी समाज में हंसी का कारण बन सकते हैं। विशेष रूप से धर्म में भावना और आस्था का होना अनिवार्य है। भावनात्मक दृष्टिकोण के बिना धर्म का पालन अधूरा होता है और इसलिए यह व्यर्थ माना जाता है।


अस्थिरं जीवितं लोके ह्यस्थिरे धनयौवने।
अस्थिराः पुत्रदाराश्च धर्मः कीर्तिर्द्वयं स्थिरम्॥

अर्थ:
इस अस्थिर संसार में जीवन, धन, यौवन, पुत्र और पत्नी सब अस्थिर हैं। केवल धर्म और कीर्ति ही स्थिर रहते हैं। इस श्लोक में बताया गया है कि संसार की चीजें स्थायी नहीं हैं, लेकिन धर्म और कीर्ति स्थिर हैं।

व्याख्या:
यह श्लोक यह सिखाता है कि जीवन के सभी सांसारिक पदार्थ जैसे धन, यौवन, पुत्र और पत्नी अस्थिर हैं और समय के साथ बदलते रहते हैं। लेकिन धर्म और कीर्ति स्थिर और शाश्वत हैं। इसलिए, हमें अपने जीवन में धर्म और कीर्ति को प्राथमिकता देनी चाहिए, क्योंकि ये ही स्थायी और स्थिर होते हैं।


स जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य जीवति।
गुणधर्मविहीनो यो निष्फलं तस्य जीवितम्॥

अर्थ:
जो व्यक्ति गुणवान और धार्मिक है, वही सच्चे अर्थ में जीता है। जो गुण और धर्म से रहित होता है, उसका जीवन निष्फल होता है।

व्याख्या:
इस श्लोक का तात्पर्य है कि गुण और धर्म के बिना जीवन की कोई वास्तविकता नहीं होती। व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक होता है जब वह गुणवान और धार्मिक हो। बिना गुण और धर्म के जीवन में कोई स्थायी मूल्य या उद्देश्य नहीं होता, और इसलिए वह जीवन निष्फल मान लिया जाता है।


प्रामाण्यबुद्धिर्वेदेषु साधनानामनेकता।
उपास्यानामनियमः एतद् धर्मस्य लक्षणम्॥

अर्थ:
वेदों में प्रामाण्यता की बुद्धि, साधना के स्वरूप में विविधता, और उपास्य के संबंध में कोई नियमन नहीं — ये सब धर्म के लक्षण हैं।

व्याख्या:
यह श्लोक धर्म की परिभाषा को स्पष्ट करता है कि धर्म वेदों में प्रामाण्य की समझ, विभिन्न साधनाओं का स्वरूप, और उपासना के संबंध में कोई विशेष नियम नहीं मानता। धर्म की व्यापकता और लचीलापन इसे विशेष बनाते हैं, और यह एक ऐसा मार्ग है जो विविधता को स्वीकार करता है।


अथाहिंसा क्षमा सत्यं ह्रीश्रद्धेन्द्रिय संयमाः।
दानमिज्या तपो ध्यानं दशकं धर्म साधनम्॥

अर्थ:
अहिंसा, क्षमा, सत्य, लज्जा, श्रद्धा, इंद्रियसंयम, दान, यज्ञ, तप और ध्यान — ये दस धर्म के साधन हैं।

व्याख्या:
इस श्लोक में धर्म के दस मुख्य साधनों का वर्णन किया गया है। ये साधन व्यक्ति के नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक हैं। धर्म के पालन के लिए इन गुणों और क्रियाओं का अभ्यास करना चाहिए। ये सभी गुण एक व्यक्ति को नैतिक और धार्मिक जीवन जीने में सहायता करते हैं।

संस्कृत के कुछ बेहतरीन श्लोक :


धर्मः कल्पतरुः मणिः विषहरः रत्नं च चिन्तामणिः
धर्मः कामदुधा सदा सुखकरी संजीवनी चौषधीः।
धर्मः कामघटः च कल्पलतिका विद्याकलानां खनिः
प्रेम्णैनं परमेण पालय ह्रदा नो चेत् वृथा जीवनम्॥

अर्थ:
धर्म कल्पतरु, विषहर मणि, चिंतामणि रत्न है। धर्म सदा सुख देनेवाली कामधेनु है, और संजीवनी औषधि है। धर्म कामघट, कल्पलता, विद्या और कला का खजाना है। इस लिए, धर्म को प्रेम और आनंद से पालन करें, वर्ना जीवन व्यर्थ होगा।

व्याख्या:
यह श्लोक धर्म के महत्व को दर्शाता है, जिसमें धर्म को कल्पतरु (कल्पना की वृक्ष), विषहर मणि (विष को नष्ट करनेवाला रत्न), चिंतामणि रत्न (सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला रत्न) और संजीवनी चौषधी (जीवनदायिनी औषधि) के रूप में वर्णित किया गया है। धर्म का पालन करने से जीवन में सुख, समृद्धि और ज्ञान की प्राप्ति होती है। धर्म के बिना जीवन का कोई मूल्य नहीं होता।


अध्रुवेण शरीरेण प्रतिक्षण विनाशिना।
ध्रुवं यो नार्जयेत् धर्मं स शोच्यः मूढचेतनः॥

अर्थ:
प्रति क्षण नष्ट होनेवाले शरीर के मुकाबले, जो धर्म को प्राप्त नहीं करता, वह मूर्ख और शोक करने योग्य है।

व्याख्या:
इस श्लोक में कहा गया है कि शरीर समय के साथ नष्ट होता है, लेकिन धर्म स्थिर और शाश्वत होता है। इसलिए, जो व्यक्ति धर्म को प्राप्त नहीं करता, वह मूर्ख और शोक का पात्र होता है। धर्म की ओर ध्यान देना और उसे अपनाना चाहिए, क्योंकि यही स्थिरता और शाश्वतता का स्रोत है।


पूर्वे वयसि तत्कुर्याधेन वृद्धः सुखं वसेत्।
यावज्जीवेन तत्कुर्याद्येनामुत्रसुखं वसेत्॥

अर्थ:
युवानी में ऐसा करना जिससे बुढ़ापा सुख से कटे। यह जीवन ऐसे जीना जिससे परलोक (या दूसरे जन्म) में चैन मिले।

व्याख्या:
इस श्लोक का तात्पर्य है कि हमें अपनी युवावस्था में ऐसे कर्म करने चाहिए जो बुढ़ापे में सुख प्रदान करें। साथ ही, हमें जीवन इस तरह जीना चाहिए कि मृत्यु के बाद का जीवन भी सुखद और आनंदमय हो। धर्म और अच्छे कर्म इस संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


अस्थिरं जीवितं लोके ह्यस्थिरे धनयौवने।
अस्थिराः पुत्रदाराश्च धर्मः कीर्ति र्द्वयं स्थिरम्॥

अर्थ:
इस जगत में धन, जीवन, यौवन अस्थिर हैं; पुत्र और स्त्री भी अस्थिर हैं। केवल धर्म और कीर्ति (ये दो ही) स्थिर हैं।

व्याख्या:
यह श्लोक दर्शाता है कि संसार की अधिकांश चीजें अस्थिर हैं, जैसे धन, जीवन, यौवन, पुत्र और पत्नी। केवल धर्म और कीर्ति स्थिर हैं और हमेशा हमारे साथ रहते हैं। इस श्लोक के माध्यम से हमें यह समझाया जाता है कि धर्म और कीर्ति को प्राथमिकता देना चाहिए क्योंकि ये स्थिर और शाश्वत हैं।


उत्थायोत्थाय बोद्धव्यं किमद्य सुकृतं कृतम्।
आयुषः खण्डमादाय रविरस्तं गमिष्यति॥

अर्थ
रोज उठकर “आज क्या सुकृत्य किया” यह जान लेना चाहिए, क्यों कि सूर्य (हर रोज) आयुष्य का छोटा टुकड़ा लेकर अस्त होता है।

व्याख्या:
इस श्लोक में यह सिखाया गया है कि हमें हर दिन यह विचार करना चाहिए कि हमने उस दिन क्या अच्छा कार्य किया। सूर्य के अस्त होने के साथ-साथ हमारा जीवन भी कम होता जाता है, इसलिए हमें हर दिन अच्छे कर्म करने पर ध्यान देना चाहिए।


अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्॥

अर्थ:
बूढ़ापा और मृत्यु नहीं आएंगे ऐसा समझकर विद्या और धन का चिंतन करना चाहिए। पर मृत्यु ने हमें बाल से जकड़ रखा है, ऐसा समझकर धर्म का आचरण करना चाहिए।

व्याख्या:
इस श्लोक का तात्पर्य है कि हमें विद्या और धन के बारे में सोचते समय यह समझना चाहिए कि हम अमर नहीं हैं। मृत्यु हम सबको पकड़ती है, इसलिए हमें धर्म का पालन करना चाहिए। धर्म का पालन हमारी अंतिम यात्रा के लिए आवश्यक है, और हमें इसे अपने जीवन का प्रमुख हिस्सा मानना चाहिए।


जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्।
मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः॥

अर्थ:
धर्महीन मनुष्य को जिंदा होने के बावजूद मैं मृत समझता हूँ। धर्मयुक्त इन्सान मर कर भी दीर्घायु रहता है, इसमें संदेह नहीं है।

व्याख्या:
यह श्लोक धर्म की महत्वपूर्णता को दर्शाता है। एक व्यक्ति जो धर्महीन होता है, उसे जिंदा रहते हुए भी मृत माना जाता है। धर्म से युक्त व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी उसका नाम और यश बना रहता है। इसलिए, धर्म का पालन जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।


अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः।
नित्य संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसङ्ग्रहः॥

अर्थ:
शरीर अनित्य है; धन भी शाश्वत नहीं है; और मृत्यु निश्चित है, इस लिए धर्मसंग्रह करना चाहिए।

व्याख्या:
इस श्लोक में बताया गया है कि शरीर और धन अस्थिर हैं, और मृत्यु एक निश्चित सत्य है। इसलिए, धर्म का संग्रह करना और उसका पालन करना आवश्यक है। धर्म स्थायी और शाश्वत है, और यही जीवन की वास्तविक सुरक्षा है।


सकलापि कला कलावतां विकला धर्मकलां विना खलु।
सकले नयने वृथा यथा तनुभाजां कनीनिकां विना॥

अर्थ:
जैसे इन्सान की आँखें कीकी के बिना निस्तेज हैं, वैसे ही धर्म की कला के बिना सभी कला व्यर्थ है।

व्याख्या:
इस श्लोक में यह सिखाया गया है कि धर्म की कला के बिना किसी भी कला का कोई महत्व नहीं है। जैसे आंखें बिना रोशनी के अंधी होती हैं, वैसे ही धर्म के बिना सभी कला और गुण बेमानी हो जाते हैं। धर्म जीवन की आधारशिला है।


मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥

अर्थ:
मृत शरीर को छोड़कर जैसे लकड़े के टुकड़े चले जाते हैं, वैसे ही संबंधी भी मुँह फेरकर चले जाते हैं। केवल धर्म ही उसके पीछे जाता है।

व्याख्या:
इस श्लोक में कहा गया है कि जब व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो उसके संबंधी और दुनिया के लोग उसे छोड़ देते हैं। केवल धर्म ही ऐसा है जो व्यक्ति के साथ रहता है और मृत्यु के बाद भी उसके साथ होता है। इसलिए, धर्म का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।


आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥

अर्थ:
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो इन्सान और पशु में समान है। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य हैं।

व्याख्या:
इस श्लोक में बताया गया है कि आहार, निद्रा, भय और मैथुन जैसे मूलभूत इच्छाएं इंसान और पशु दोनों में समान हैं। लेकिन धर्म ही इंसान को पशु से अलग करता है। धर्म ही मनुष्य के जीवन को मूल्यवान और विशिष्ट बनाता है।


धर्मस्य फलमिच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मानवाः।
फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति सादराः॥

अर्थ:
लोगों को धर्म का फल चाहिए, पर धर्म का आचरण नहीं। और पाप का फल नहीं चाहिए, पर गर्व से पापाचरण करते हैं।

व्याख्या:
इस श्लोक में यह दिखाया गया है कि लोग धर्म के लाभ की इच्छा तो करते हैं, लेकिन धर्म का पालन नहीं करते। वहीं पाप के फल से बचना चाहते हैं, लेकिन पाप का आचरण गर्व से करते हैं। यह श्लोक यह सिखाता है कि धर्म और पाप के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

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सत्येनोत्पद्यते धर्मो दयादानेन वर्धते।
क्षमायाम स्थाप्यते धर्मो क्रोधलोभा द्विनश्यति॥

अर्थ:
धर्म सत्य से उत्पन्न होता है, दया और दान से बढ़ता है, क्षमा से स्थिर होता है, और क्रोध एवं लोभ से नष्ट होता है।

व्याख्या:
इस श्लोक में धर्म के विकास की प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है। धर्म सत्य से उत्पन्न होता है, दया और दान से बढ़ता है, और क्षमा से स्थिर होता है। लेकिन क्रोध और लोभ धर्म को नष्ट कर देते हैं। इसलिए, धर्म के पालन में इन गुणों का होना आवश्यक है।


धर्मो मातेव पुष्णानि धर्मः पाति पितेव च।
धर्मः सखेव प्रीणाति धर्मः स्निह्यति बन्धुवत्॥

अर्थ:
धर्म माता की तरह हमें पुष्ट करता है, पिता की तरह हमारा रक्षण करता है, मित्र की तरह खुशी देता है, और संबंधीयों की भाँति स्नेह देता है।

व्याख्या:
इस श्लोक में धर्म की भूमिका की तुलना माता, पिता, मित्र और संबंधी से की गई है। धर्म माता की तरह पोषण करता है, पिता की तरह रक्षा करता है, मित्र की तरह खुशी देता है, और संबंधी की तरह स्नेह प्रदान करता है। यह बताता है कि धर्म जीवन के विभिन्न पहलुओं में कितना महत्वपूर्ण होता है।


अन्यस्थाने कृतं पापं धर्मस्थाने विमुच्यते।
धर्मस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति॥

अर्थ:
अन्य जगहों पर किए गए पापों से धर्मस्थल में मुक्ति मिलती है, पर धर्मस्थल में किया हुआ पाप वज्रलेप बनता है।

व्याख्या:
इस श्लोक में बताया गया है कि पाप जो धर्मस्थल में किया जाता है, वह अत्यंत गंभीर होता है और उसके परिणाम भी अत्यंत कठोर होते हैं। धर्मस्थल में पाप के परिणाम वज्रलेप के समान होते हैं, जो कभी मिटता नहीं है। इसीलिए धर्मस्थल में पाप से बचना चाहिए और धर्म का पालन करना चाहिए।


न क्लेशेन विना द्रव्यं विना द्रव्येण न क्रिया।
क्रियाहीने न धर्मः स्यात् धर्महीने कुतः सुखम्॥

अर्थ:
क्लेश बिना द्रव्य नहीं, द्रव्य बिना क्रिया नहीं, क्रिया बिना धर्म संभव नहीं; और धर्म के बिना सुख कैसे हो सकता है?

व्याख्या:
इस श्लोक में कहा गया है कि किसी भी कार्य को पूर्ण करने के लिए द्रव्य (संसाधन) की आवश्यकता होती है, और बिना द्रव्य के क्रिया संभव नहीं है। इसी प्रकार, धर्म के बिना सुख की प्राप्ति भी असंभव है। इसलिए, धर्म का पालन करना और उसके लिए प्रयास करना आवश्यक है।


धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौच मिन्द्रियनिग्रहः।
धी र्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥

अर्थ:
धारणा शक्ति, क्षमा, दम, अस्तेय (चोरी न करना), शौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध — ये दस धर्म के लक्षण हैं।

व्याख्या:
इस श्लोक में धर्म के दस प्रमुख लक्षणों की सूची दी गई है। ये गुण और लक्षण धर्म के पालन के लिए आवश्यक हैं। व्यक्ति को इन गुणों का पालन करना चाहिए ताकि वह धर्म की सही समझ और अभ्यास कर सके।


इन श्लोकों के माध्यम से हमें धर्म के महत्व और उसके पालन के लाभ को समझने में सहायता मिलती है। धर्म केवल एक धार्मिक अवधारणा नहीं है, बल्कि यह जीवन की नैतिक और आध्यात्मिक दिशा को निर्धारित करता है।

दान पर श्लोक :

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