परम श्रद्धा का पुरस्कार – सूरदास की कथा
सूरदास, श्रीकृष्ण के अन्य भक्त थे। वे अंधे थे। एक बार यात्रा करते समय, वे एक सूखे कुँए में गिर गये। उन्होंने तब, भगवान से इस प्रकार प्रार्थना की ‘हे भगवान! मैं अंधा हूँ, मैं कुँए से बाहर निकल नहीं पा रहा हूँ, कृपया मेरी रक्षा करो, तुम ही मुझे बचा सकते हो!’
भगवान श्रीविष्णु राधा सहित उधर पहुँचकर, सूरदास को कुँए से बाहर निकाला। उनकी बातचीत से सूरदास ने पहचान लिया था कि वे साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण और राधा थे। तब सूरदास ने उनकी प्रार्थना की, यथा ‘हे भगवान ! मैं आपकी वाक् को सुन पा रहा हूँ, मैं अंधा हूँ इसलिए मैं आपको देख नहीं पा रहा हूँ।’
भगवान श्रीमहाविष्णु सूरदास के साथ परिहास करना चाहते थे, इसलिए वे राधा से ऊँची आवाज में कहने लगे ‘राधा ! उसके निकट मत जाओ, वह तुम्हारे पैर पकड़ लेगा।’ राधा, सूरदास के पीछे जाकर, उसे छुआ ।
सूरदास ने कहा- ‘आप मेरे पीछे खड़ी हैं क्या?’ ऐसा कहते हुए सूरदास ने घूमकर राधा के पैर पकड़ लिया। राधा ने एनकेन प्रकारेण अपने पैर छुडा लिए। पैर तो छुड गये लेकिन सूरदास के हाथों में राधा के पायल आ गये थे।
राधा ने सूरदास से पूछा ‘मुझे मेरे पायल वापस दे दो। वे भगवान श्रीकृष्ण के लिए बहुत प्रिय हैं।

सूरदास ने उत्तर देते हुए कहा ‘मैं तो अंधा हूँ। मैं कैसे ही जानूँ कि ये पायल आप के ही हैं? मैं तभी पहचान पाऊँगा जब मैं देख पाऊँ । इसलिए, श्रीकृष्ण से कह दो कि वे मुझे दृष्टि (देखने की योग्यता) दें।’
तुरंत ही सूरदास का अंधापन दूर हुआ और वे भगवान श्रीकृष्ण और राधा को देखने लगे ।
श्रीकृष्ण ने कहा ‘कोई वर माँगो। मैं तुम्हें दूँगा।’
सूरदास ने तब ऐसा उत्तर दिया ‘हे भगवान ! तुम्हारे मनोहर दिव्य साकार रूप को देखने के बाद, मेरे अंदर इस विश्व के किसी दूसरी वस्तु को देखने की इच्छा नहीं रह गई है। मुझे तुरंत पुनः अंधा बना दो ।’
सूरदास का श्रीकृष्ण के प्रति का भक्तिभाव इतना श्रेष्ठ था ।