श्रीराम का अश्वमेध यज्ञ
दशरथ के पुत्र, अयोध्या के राजा श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ, किया । यज्ञ की समाप्ति पर श्रीराम ने यज्ञ अश्व की पूजा की। जैसे ही श्रीराम ने उस अश्व को छुआ, उसने आदमी का रूप लिया। उसने श्रीराम को अपनी गाथा सुनाई, यथा-
‘हे स्वामी! इसके पहले जन्म में में ब्राह्मण था। आपके आशीर्वचन से मैं ने अनेकानेक दान किये तथा अच्छा नाम भी कमाया। मेरी कीर्ति बहुत बढ़ भी गई थी। लेकिन उस यश ने मेरे अंदर अहंकार को बढ़ा दिया। मैं ने कोई ऐसा यज्ञ करना चाहता था जो मेरी कीर्ति और बढ़ा सके। उस यज्ञ को मैं ने लोक हित के लिए करना नहीं चाहा बल्कि मेरे यश तथा कीर्ति को बढाने के लिए ही करना चाहा ।’

जब मैं ने यज्ञ करना प्रारंभ किया, तब दूर्वास महामुनि वहाँ आये । एक सेवक ने मुझे उनके आगमन की सूचना दी। लेकिन अहंकार के कारण मैं ने ऐसा कहा ‘महर्षि के आने से क्या हुआ? मैं यहाँ बडा यज्ञ कर रहा हूँ, वे मुझ से श्रेष्ठ नहीं हैं, उन्हें आने दो!’
दूर्वास बहुत क्रुद्ध हुए क्योंकि उनके सादर पूर्वक स्वागत के लिए कोई नहीं आया था। वे मेरे पास आकर मुझे इस प्रकार शाप दिया –
‘दान देते तुम्हारा अहंकार बढ़ गया है। मैं महान मुनि हूँ, लेकिन तुमने मेरा अपमान किया। इस पाप के लिए तुम अश्व में बदल जाओ ।’
मैं बहुत डर गया था, उनके चरणों पर गिरकर प्रार्थना की ‘मैं अपने अहंकार से अंधा हो गया। दया करके मुझे क्षमा करो ।’ लेकिन दूर्वास ने कहा- ‘मैं शाप देता हूँ, तो उसे कभी वापस ले नहीं सकता। तुम श्रीराम के भक्त हो और इसलिए जब वे अश्वमेध यज्ञ करेंगे तब तुम्हें छुएँगे और तब जाकर तुम्हारा नर शरीर तुम्हें वापस मिल जायेगा ।’
‘यही मेरी गाथा है’ अश्व ने इस किस्से को सुनाकर आदमी का रूप धारण किया । श्रीरामचंद्रमूर्ति के प्रति उसके जो भक्ति थी, वह उसको आदमी का रूप प्राप्त करने के लिए मदद आई ।