शबरी (श्रीराम की भक्तिन)
शबरी, भगवान श्रीरामचंद्र की श्रेष्ठ भक्तिन थी। उसके पिता क्षत्रिय थे और माँ शिकारिन थी। उस का विवाह जब हुआ, तब उसके माँ पिताजी ने सैकड़ों जानवरों को मारकर बड़ी दावत देना चाहा। लेकिन शबरी को मासूम जानवरों को मारना पसंद नहीं था। वह विवाह करना ही पसंद नहीं कर रही थी। भक्ति को जीवनाधार बनाकर भक्तिन के रूप में आध्यात्मिक क्षेत्र में ही जीकर अविवाहिता बनकर जीना चाह रही थी। वह ऐसी मानसिकता के नेपथ्य में अपने माँ-पिताजी को छोडकर चली। वह मंतग महर्षि के आश्रम में जाकर रहने लगी। वहाँ स्वच्छ, निर्मल जीवन विताने लगी। उसने महर्षि से पूछा ‘जीवन जीने का कौन सा साधन सीधा व सही है? उसके उत्तर में महर्षि से कहा- ‘प्रियपुत्री! जीवन का परमलक्ष्य भगवान को जानना है। सत्संगति
तथा ऋषि मुनियों की सेवा ही भगवान को पहचानने का मार्ग है। निरंतन ध्यान में रहो। ध्यान से मस्तिष्क निर्मल बनेगा।’
मतंग द्वारा एक मिम्न जाति वाली को शरण तथा शिक्षा मिलना आश्रमवासियों को पसंद नहीं आया। उन्होंने इन दोनों को नजरंदाज करना शुरु किया। शवरी ग्लानि से पीडित हुई। वह भूनि में कहने लगी – हे मुनि! मैं अन्यजा हूँ। आपके वहाँ शरण लेना ही मेरा अपराध है ।’ मुनि ने शबरी को अपने आश्रम से निकल जाने की आज्ञा दी। शवरी निकल गई तथा एक झोपड़ी में रहने लगी। एक दिन वह खान करने के लिए नदी के कुल पर जा रही थी। एक ब्राह्मण नदी में स्नान करके उसी मार्ग में अपने घर वापिस लौट रहा था।

तभी शयरी के साडी की पल्लू उस ब्राह्मण से लगी। ब्राह्मण पुनः खान करने नदी में गया। एक बार गीता लगाते ही, उसके शरीर पर कीडे रंगने लगे तथा नदी का पानी लाल हो गया। उसने एक भक्तिन का अपमान किया और ये सभी उसी के परिणाम सिद्ध हुए। पहले इन परिणामों की देखकर चकित हुआ. लेकिन उसके बाद ही उसे उसका कारण मिला। उसने पछताकर, शबरी से माफी माँगी।
कई वर्ष बीत गये। श्रीरामचंद्रमूर्ति, कैकेई की माँग के कारण दण्डकारण्य में विवरण कर रहे थे। उन्हें इससे पहले के प्रण की याद आई। श्रीरामचंद्रमूर्ति, शबरी के कुटीर में पधारे। बीराम को शचरी ने स्वादिष्ट फल खाने को दिये। राम को देने से पहले वह हर फल से चखचखकर निधर्धारित करने लगी कि वे मीठे हैं या नहीं। जुटे होने के बावजूद श्रीरामचंद्र ने उनको बड़े चाव से खाया। अन्यजा के प्रति उनका वात्सल्य अपूर्व था (उस औरत की भक्ति ही इसका कारण था)।
एक दिन सभी मुनि एक साथ रामचंद्र से मिले। उन्होंने राम से पूछा ‘हे भगवान! नदी का पानी लाल रंग में क्यों बदल गया था? एकदा समय वह चहुत स्वच्छ था।
रामचंद्र के साथ वनवास में रहनेवाले लक्ष्मण ने उनको ऐसा जवाब दिया क्योंकि ब्राह्मणों ने मंतग महर्षि का बहिष्कार किया तथा हमारी भक्तिन का अपमान किया। तब मुनियों ने प्रश्न किया क्या हम उस रक्तवर्ण नदी के पानी को स्वच्छ पानी में चदल नदीं सकते? लक्ष्मण ने उत्तर दिया अगर शवरी उस नदी में स्नान करेगी, तब गंदा पानी स्वच्छ बन जायेगा।’
तब मुनि ने शवरी से प्रार्थना की कि वह आकर नदी के पानी को स्वच्छ बनायें। शबरी ने उनकी प्रार्थना सुनी, खान किया। पानी पूरा स्वच्छ तथा निर्मल वना ।
सभी ने शयरी के प्रति धन्यवाद प्रकट किया।