रघुवंश का उद्भव
दिलीप चक्रवर्ती निस्संतान थे। चक्रवर्ती तथा उनकी पत्नी सुदक्षिणा, वशिष्ठ महर्षि के आश्रम में जाकर वशिष्ठ महर्षि, जो सूर्यवंशीय राजाओं के गुरू थे, उनका दर्शन किया। दिलीप ने महर्षि से कहा ‘हे ऋषिवर! मेरे बाद सिंहासन को संभालने वाला कोई नहीं रहा। तव वशिष्ठ ने दिलीप को निस्संतानवान होने का कारण इस प्रकार कहा ‘इंद्रलोक में देवेन्द्र की सहायता करने के बाद जब तुम वापिस लौट रहे थे, तब तुमने पवित्र कामधेनु की प्रदक्षिणा नहीं किया, उसको नजरंदाज करके आ गये ।
उनका सम्मान नहीं हुआ, तब उस धेनु क्रुद्ध हुआ तथा तुम्हें निस्संतावान हो जाने का शाप दिया। जो श्रेष्ठ होते हैं, और जब उनका मान नहीं रखा जाता है, तब कोई संतोषपूर्वक जीवन जी नहीं सकता।’ दिलीप ने कहा ‘हे मुनिवर! वह अनजाने हो गया, मैं ने जान बूझकर यह पाप नहीं किया।’ वशिष्ठ ने कहा ‘हे दिलीप ! अब हमारी नंदिनी अपने वत्स के साथ यहाँ आयेगी। आप दोनों यहाँ ठहरकर इस धेनु की सेवा करो। आपका पाप दूर हो जायेगा ।
दिलीप चक्रवर्ती तथा उनकी पत्नी आश्रम में रहकर नंदिनी धेनु की पूजा व सेवा की। चक्रवर्ती, धेनु के पीछे ही रहा करता था। जहाँ भी गाय जाती, उसके रक्षणार्थ स्वयं राजा भी पीछे पीछे चलता ।
एक दिन अचानक एक सिंह ने आकर उस पर झपट पडा । दिलीप ने एक सिंह को मारने के लिए तीर से निशाना लगाया । अचानक उसके हाथ अशक्त हो गये और तीर चलाना असंभव हो गया था ।
आश्चर्य की बात, सिंह मनुष्य के रूप में बोलने लगा ‘हे राजन् ! आप मुझे मार नहीं पाओगे क्यों कि मैं शिव का भक्त हूँ। मैं भूखा हूँ। उसे मारकर मुझे अपनी भूख मिटाने दो।’ राजा दिलीप ने कहा ‘नहीं मृगराज! मैं इस भूभाग का राजा हूँ। यहाँ के सभी प्राणियों की रक्षा करना मेरा दायित्व है। उसे छोड़ दो और उसके बदले मुझे मार खाकर अपनी भूख मिटा लो ।’
नंदिनी गाय ने ऐसा कहा ‘हे दिलीप ! मैं सिंह के भेष में आया हुआ शिव भक्त हूँ। मुझे आपकी परीक्षा लेने के लिए भेजा गया । वशिष्ठ जी की कृपा के कारण कोई मुझे तंग नहीं कर सकता। आपने जिस स्फूर्ति तथा सेवाभाव के साथ अपने को शिकार बनाकर मुझे बचाने का प्रयास किया, उससे मैं प्रसन्न हुआ। आपको बहुत जल्द एक लड़का पैदा होगा ।’
सुदक्षिणा ने एक बेटे को जन्म दिया। उसका नाम ‘रघु’ रखा गया। इसी नाम से इस वंश ने आगे कीर्ति पायी। इस वंश में ही भगवान श्रीमहाविष्णु ने श्रीरामचंद्र मूर्ति के रूप में जन्म लिया ।