महान कवि कम्बन

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महान कवि कम्बन


चोल राज्य के एक छोटे गाँव तिरुमुंडूर में उव्वच्चन नामक मंदिर के पूजारी के घर एक दिन एक गर्भवती आई ।

‘मैं कम्बम का स्थिरवासी हूँ। उस गाँव में दंगों के पैदा होने के कारण, लोग प्राणों के बचाव के लिए भाग दौड कर रहे हैं। मुझे भी वहाँ से पलायन करना पड़ा। कृपया आपके घर में मुझे रहने के लिए जगह दीजिए, मैं गर्भवती हूँ।’

कृपालु पुजारी ने स्वीकृति दी तथा उससे कहा ‘हे माँ! आप जितने दिनों के लिए रहना चाहती हो, उतने दिनों के लिए निस्संदेहपूर्वक रह सकती हो ।

कुछ समय बाद, उस श्री ने एक वेटे को जन्म दिया। उस बच्चे का नाम कम्वन रखा गया क्योंकि यह स्त्री कम्यम् से आई थी। कन्चन की आयु सात साल की हुई। उस गाँव के एक उदार व्यक्ति सदायप्पा ने माँ बेटे की परवरिश में सहायता की। कम्पन को कनकराय के पास विद्याभ्यास के लिए भेजा गया।

महान कवि कम्बन

एक बार गाँव के मंदिर में वार्षिकोत्सव हो रहा था। कम्वन ने पूजा सामग्री के प्रबंधन करने में मंदिर के पुजारी की सहायता की । अभिषेक समर्पण का समय आया। पुजारी ने कम्यन से देवी माँ के सारे आभूषण निकालकर उनकी अभिषेक के लिए तैयार रखने को कहा। अभिषेक समर्पण के दौरान कम्वन को कुछ असहनीय तथा चक्कर की स्थिति पैदा हुई। उसने देवी माँ की प्रार्थना की हे माँ। मुझे शक्ति दो, मुझपर कृपा करी ।

देवी माँ ने उन पर आशीर्वाद वरसाया! उसने ऐसा कहा ‘हे वत्स! तुम ठीक हो जाओगे। तुम एक महान कवि बनोगे ।’

एक दिन कम्थन अपने यजमान को खेती की रखवाली कर रहे थे। एक अभ्य उसमें घुमकर पौधों को चया-खा रहा था। कम्वन ने उस अश्व को यहाँ से भगाने के लिए जोर से चिल्लाया। उसके शब्द जो निकले, ये सभी पद्य के रूप में ही निकले। है देवी माँ काली! उस अश्व के प्राण हर लो जिसने कलिंगराय के फसल को खा लिया। उसी क्षण को अभ्य नीचे गिरकर मर गया ।

तभी अश्य के स्वामी तथा सदायष्पा वहाँ पहुंचे। ये मृत घोडे को देखकर बहुत व्याकुल हुए। लेकिन आश्चर्य की बात है। कम्वन के पद्म को सुनकर घोड़ा मर गया क्या? उनको विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने सोचा कि कम्वन ने पत्थर मारकर उसे माग होगा। लेकिन कम्वन ने कहा ‘नहीं स्वामी? मैं ने उस पर पत्थर नहीं मारा, मैं ने केवल उसे डाँटा। वही पद्म का रूप धारण किया।’ उन्होंने सोचा ‘यह पद्य देवी माँ के कटाक्ष से इनके मुँह से आया होगा।

अश्व के स्वामी ने प्रत्युत्तर दिया ‘अगर यह सच है तो में फसल का नष्ट भर दूँगा। कम्वन एक और पद्य को पढ़कर मेरे घोडे को जिलाइए ।

कम्बन ने देवी माँ पर एक पद्य की रचना करके यह प्रार्थना की कि यह घोड़े को जिलाएँ। और आश्चर्य की बात। मृत घोडे में चेतना जगी तथा वह पुनर्जीवित होकर खड़ा हो गया । सभी लोगों ने यह स्वीकार किया कि कम्बन ने निश्चित ही देवी माँ का अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। कम्वन ने ‘तिरुक्कुर’ नामक ग्रंथ की रचना की। उन्होंने वाल्मीकि कृत रामायण को पढ़ा। ये पढ़कर परवश हो गए थे।

एक दिन सदायप्पा की ओर से कम्बन को एक पत्र मिला। उसमें ऐसा लिखा हुआ था ‘राजा कुलोत्तुंग चोल ने मुझे तुम्हें उनके भवन में लाने के लिए लिखा है। इससे पता चला कि कम्वन कितना कीर्ति प्रतिष्ठित कवि था ।सदाचप्पा, कम्वन को राजा के दरवार में ले गया। कम्थन की काव्य प्रतिभा को देखने के बाद, राजा ने उनको अपना दरवारी कवि बनाया । दरवारी कवि वनने के बाद, राजा ने कम्वन को सम्मानपूर्वक अनेक प्रकार के दिव्य भव्य भेंट दिये।

एक दिन राजा ने कम्वन तथा ओट्टक्कूत्तर, नामक एक और कवि का संबोधन करते हुए कहा हे कवि श्रेष्ठों। मुझे बलवती इच्छा हो रही है कि आप वाल्मीकि विरचित रामायण को तमिल में भी लिखें। कृपया मेरी वलवती इच्छा की पूर्ति करो।

ओडकूत्तर एक प्रतिष्ठित कवि थे। इसके बावजूद कम्बन के प्रति राजा को आधिक सम्मान का भाव था। ओट्टकृत्तर, कम्वन से पहले प्रतिष्ठित कवि माने जाते थे। ये कम्वन के प्रवर थे। लेकिन राजा ने कम्वन को ओइकूत्तर का समकक्षी बनाया। इसलिए ओङ्ककूत्तर कम्वन से जलता था। उसे यह वात असहनीय वन गई थी।

दो महीनों के बाद राजा ने दोनों कवियों से पूाडा ‘रामायण का तमिल में अनुवाद कहाँ तक हुआ?’ ओष्ट्रकूत्तर ने कहा ‘मुझसे तो रामायण का थोड़ा ही हिसरा अनुवाद करने को हुआ।’ कम्वन ने कहा हे राजन्! में ने श्रीराम तथा उनकी वानर सेना के साथ समुद्र को पार करने तक की गाथा का अनुवाद किया।’ ओट्कृतर ने सोच रखा था कि कम्वन ने अभी तक प्रारंभ भी नहीं किया होगा। उसने कम्वन से कहा ‘हे कम्वन! तुमने जो अनुवाद किया, उसके अंतिम पद्य को सुनाओ ।

मुझ पर सरस्वती देवी का कटाक्ष होते सब कुछ हो जायेगा। राजा ने आश्चर्यपूर्वक कहा हा! हा! कितना अच्छा पद्म है।’ ओडकूत्तर ने सूचना दी ‘चूँकि कम्वन ने ज्ञानपूर्वक इतनी रचना की, इसलिए उनको अपना काम पूरा करने दीजिए ।

राजा ने प्रचार करवाया श्रीरंगम के मंदिर में भगवान के सामने प्रवरों एवं कवियों के सामने रामायण का पठन होगा।’

कन्चन, श्रीरंगम गये। वहाँ, उनकी भेंट आचार्च श्रीनाथमुनि नामक श्रीवैष्णव से हुई। कम्वन ने उनसे अपने आगमन का विवरण दिया ।

तव आचार्य ने आशीर्वाद देते हुए कहा ‘मैं प्रसन्न हुआ हूँ क्योंकि तुमने अपनी रचना का नामकरण ‘गमावतार’ कह कर किया। श्रेष्ठ व मान्य वैष्णवों के समक्ष सहय स्तंभों के प्रधान कक्ष में तुमको उसका पठन करना होगा।’

कम्वन ने बीरंगम मंदिर के सहस्र स्तंभी वाले प्रधान कक्ष में रामावतार का पठन प्रारंभ किया। नाथमुनि वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने कहा- ‘प्रथम पद्य ही एक अमूल्य रत्न निकला ! सदयप्पा ने तुम्हारी वहुत सहायता की होगी। फिर भी एक सी पयों की पूर्ति में हर बार उनका नाम तुमने लिया, यह उचित नहीं है। एक सहस्र पद्यों के बाद उनका नाम लेना ठीक था।

चिदम्बरम् में, जय कम्वन तमिल भाषा में रामायण का पठन कर रहे थे, तथ मंदिर के, प्रधान अर्थक के बेटे को एक नाग ने डस लिया था । तव कम्वन ने ‘रामावतार’ के नागपाश अध्याय का पठन किया। नाग ने वापस आकर, बच्चे के शरीर से विष को निकालकर लौट गया। वच्चा ठीक हो गया ।

‘रामावतार’ का पठन एवं कम्वन की भक्ति को पहचानने के लिए इनकी जानकारी आवश्यक है। यही उनकी महानता भी है।

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