महादाता कर्ण
एक दिन अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया ‘सभी लोग केवल कर्ण को ही महादानी मानते हैं? मैं भी लोगों को दान देता हूँ।’ श्रीकृष्ण ने अर्जुन के संदेह को मिटाने के लिए दान प्रतियोगिता का आयोजन किया था । अगले दिन श्रीकृष्ण ने दो पहाड़ों की सृष्टि की एक सोने की, एक रजत की। उन्होंने अर्जुन से कहा ‘हे अर्जुन ! अगर तुम इन दोनों पहाड़ों को शाम से पहले दान दोगे तब तुम कर्ण के समान दानी माने जाओगे ।
पूरे गाँव में इस बात का प्रचार करवाया गया कि अर्जुन दान दे रहा है। उसे सुनकर बहुत सारे लोग दान लेने आये भी। अर्जुन लगातार स्वर्ण तथा रजत से बने पहाड़ों को तोड़ता गया व दान देता गया। इतना देने के बावजूद स्वर्ण व रजत पहाड़ों का आधा भाग ही दान में दिया गया था।

उसके बाद अगले दिन भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण के लिए बुलावा भेजा। कर्ण से कहा गया कि तुम्हें सुबह से शाम तक इन दोनों पहाड़ों को दान देना होगा ।
तभी दो व्यक्ति उस ओर से उस मार्ग में जा रहे थे। कर्ण ने उन दोनों को अपने पास बुलाया। उसने उन दोनों से कहा ‘यहाँ स्वर्ण और रजत के दो पहाड़ हैं। आप में से एक आदमी स्वर्ण का पहाड लो और दूसरा रजत का । आप दोनों इन्हें लेकर धनवान बन जाओगे, लो ।’ तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा ‘अब तुम्हारे तथा कर्ण के बीच के अंतर को तुम जान गये होगे । तुम केवल टुकडे दान दे रहे थे, लेकिन कर्ण ने पूरे – पूरे पहाड़ों को एक साथ दान में दे दिया।’ इसलिए कर्ण ही दूसरों से बढ़ा हुआ दानशील है, महादाता है।