भगवान गणेश के जन्म की कथाएँ : भगवान गणेश जी को विघ्नहर्ता, मंगलकारी और प्रथम पूज्य देव माना जाता है। उनके जन्म से संबंधित कई रोचक कथाएँ विभिन्न पुराणों में मिलती हैं। हर पुराण में उनकी कथा का स्वरूप थोड़ा अलग है, लेकिन सभी में उनका महत्त्व एक जैसा ही है। आइए विस्तार से जानते हैं –
पद्म पुराण की कथा
पद्म पुराण के अनुसार, एक बार माता पार्वती स्नान के लिए तैयार हो रही थीं। उन्होंने अपने शरीर पर चंदन और उबटन लगाया। स्नान के बाद जब यह उबटन उनके शरीर से उतरा तो पार्वती जी ने उस उबटन से एक आकर्षक प्रतिमा का निर्माण किया। उस प्रतिमा का स्वरूप विलक्षण था, उसका मुख हाथी के समान था।
पार्वती जी ने बड़ी ममता से उस प्रतिमा को देखा और उसे अपने पुत्र के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने उसे गंगा में स्नान कराने के लिए प्रवाहित किया। जैसे ही वह आकृति गंगा के जल में गिरी, वह तुरंत एक विशालकाय देवपुरुष के रूप में प्रकट हो गई।
देवताओं ने उनका स्वागत करते हुए उन्हें “गांगेय” कहा। स्वयं ब्रह्मा जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा-
“हे पुत्र! आज से तुम गणों के अधिपति कहलाओगे। तुम्हारा नाम होगा गणेश।”
इस प्रकार पद्म पुराण के अनुसार भगवान गणेश का प्राकट्य हुआ और वे देवताओं के बीच प्रमुख स्थान प्राप्त करने लगे।
लिंग पुराण की कथा
लिंग पुराण में गणेश जन्म का एक और रहस्यमयी प्रसंग मिलता है।
एक बार देवताओं को दैत्यों से बहुत कष्ट होने लगा। दैत्य निरंतर यज्ञों और धर्मकर्मों में विघ्न डालते थे। तब सभी देवता एकत्र होकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। उन्होंने कहा –
“हे देवदेव! हमें एक ऐसे देवता की आवश्यकता है, जो दैत्यों के कार्यों में विघ्न डाले और हमारे धर्म की रक्षा करे।”
महादेव भोलेनाथ ने उनकी प्रार्थना सुनकर प्रसन्न होकर कहा – “तथास्तु”।
समय आने पर एक दिव्य स्वरूप प्रकट हुआ। उनका शरीर तेजोमय था, मुख गज (हाथी) के समान था। एक हाथ में उन्होंने त्रिशूल और दूसरे हाथ में पाश धारण किया था।
देवताओं ने प्रसन्न होकर पुष्प-वृष्टि की और बार-बार उनके चरणों में प्रणाम किया। तभी भगवान शिव ने आदेश दिया-
“हे पुत्र गणेश! तुम दैत्यों के दुष्कर्मों में विघ्न डालोगे और देवताओं तथा ब्राह्मणों की रक्षा करोगे। तुम सब कार्यों में सर्वप्रथम पूज्य होंगे।”
उस दिन से गणेश जी को विघ्नहर्ता और विघ्नकर्ता दोनों की उपाधि प्राप्त हुई।
ब्रह्मवैवर्त, स्कन्द एवं शिव पुराण की कथाएँ
ब्रह्मवैवर्त पुराण, स्कन्द पुराण और शिव पुराण में भगवान गणेश के अवतार से जुड़ी अनेक भिन्न-भिन्न कथाएँ वर्णित हैं। इन्हीं कथाओं के आधार पर गणेशजी की महिमा और महत्व और भी अधिक स्पष्ट होता है।
पुराणों में यह भी उल्लेख मिलता है कि प्रजापति विश्वकर्मा की दो कन्याएँ –रिद्धि और सिद्धि -भगवान गणेश की पत्नियाँ हैं। इनसे उन्हें दो पुत्र प्राप्त हुए – सिद्धि से ‘शुभ’ और रिद्धि से ‘लाभ’। ये दोनों ही संतति कल्याणकारी और मंगलदायक मानी जाती हैं।
गणेश चालीसा के अनुसार
गणेश चालीसा में भगवान गणेश के जन्म से जुड़ी एक अद्भुत और विलक्षण कथा वर्णित है।
एक समय माता पार्वती ने यह संकल्प किया कि उन्हें ऐसा पुत्र चाहिए जो असाधारण बुद्धिमान हो, गुणों की खान हो और सभी गणों का नायक बने। इसके लिए उन्होंने कठोर तपस्या की और एक बड़ा यज्ञ संपन्न किया। यज्ञ पूर्ण होने के बाद एक अद्भुत घटना घटी — श्री गणेश स्वयं ब्राह्मण का रूप धारण कर माता पार्वती के द्वार पर पधारे।
माता पार्वती ने उन्हें अतिथि मानकर बड़े आदर से सत्कार किया। गणेश प्रसन्न हुए और वरदान दिया –
“माते! आपके तप और भक्ति से आपको गर्भ के बिना ही एक दिव्य पुत्र प्राप्त होगा। यह बालक विशिष्ट बुद्धि वाला होगा, गुणों का भंडार होगा और समस्त गणों का नायक बनेगा।”
यह कहकर गणेश वहां से अंतर्ध्यान हो गए और चमत्कारिक रूप से पालने में एक सुंदर बालक प्रकट हो गया।
उत्सव और शनि की दृष्टि
पुत्र प्राप्ति से माता पार्वती का हृदय आनंद से भर उठा। समस्त कैलाश में हर्षोल्लास छा गया। आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। चारों दिशाओं से देवता और ऋषिगण इस विलक्षण बालक को देखने पहुंचे।
उसी समय शनिदेव भी वहां आए। किंतु अपनी कठोर दृष्टि (दृष्टिदोष) को लेकर वे बालक के समीप जाने से झिझकने लगे। माता पार्वती ने उनसे आग्रह किया कि क्या वे पुत्र प्राप्ति के इस उत्सव में सम्मिलित नहीं होना चाहते? संकोचवश शनि देव ने बालक पर दृष्टि डाली, लेकिन जैसे ही उनकी नजर बालक पर पड़ी, एक भयानक घटना घटी।
बालक का सुंदर सिर धड़ से अलग होकर आकाश की ओर उड़ गया। यह दृश्य देखकर माता पार्वती विलाप करने लगीं और समस्त कैलाश में शोक का वातावरण छा गया।
भगवान विष्णु का उपाय
देवताओं और ऋषियों ने शनि की दृष्टि दोष को कारण बताया। माता पार्वती की पीड़ा देखकर भगवान विष्णु ने तुरंत गरुड़ देव को आदेश दिया कि वे आकाश मार्ग से जाएं और जिस प्राणी का सिर सबसे पहले दिखे, उसे काटकर ले आएं। गरुड़ ने यात्रा प्रारंभ की और मार्ग में सबसे पहले उन्हें एक विशाल हाथी दिखाई दिया।
गरुड़ देव ने हाथी का सिर काटकर लाया और बालक के धड़ पर रख दिया। तत्पश्चात भगवान शिव ने अपने दिव्य मंत्रों से उस सिर में प्राण फूँक दिए। क्षणभर में ही वह बालक पुनः जीवित हो उठा और सबके आनंद का ठिकाना न रहा।
गणेश का नामकरण और प्रथम पूज्य का वरदान
देवताओं ने हर्षोल्लास से पुष्पवृष्टि की। भगवान शंकर ने घोषणा की कि यह विलक्षण बालक अब गणेश कहलाएगा — गणों का नायक। सभी देवताओं ने मिलकर उनका नामकरण किया और उन्हें प्रथम पूज्य होने का आशीर्वाद दिया।
तभी से किसी भी शुभ कार्य या पूजा का प्रारंभ भगवान गणेश की आराधना से होता है।
वराहपुराण के अनुसार
वराहपुराण में भगवान गणेश के जन्म की कथा अन्य पुराणों से कुछ अलग मिलती है। इसमें वर्णित है कि एक समय भगवान शिव ने मन ही मन इच्छा की कि वे ऐसा अद्भुत पुत्र उत्पन्न करें जो समस्त लोकों में अद्वितीय हो। उन्होंने पंचतत्वों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – को लेकर बड़ी तल्लीनता से एक दिव्य बालक की रचना करनी शुरू की।
भगवान शिव की कला और तपश्चर्या से वह बालक इतना रूपवान और आकर्षक बनता जा रहा था कि उसे देखकर स्वयं देवता भी आश्चर्यचकित हो उठे। उसका स्वरूप तेजस्वी, भव्य और अत्यंत आकर्षक था। देवताओं के मन में यह भय उत्पन्न हो गया कि कहीं यह दिव्य बालक आगे चलकर हम सबके तेज और महिमा को पीछे न छोड़ दे।
देवताओं की इस आशंका को भगवान शिव ने तुरंत भांप लिया। उन्होंने सोचा कि यदि यह बालक इतना रूपवान बना रहा, तो उसका सौंदर्य स्वयं त्रिलोक में असंतुलन पैदा कर देगा। अतः शिवजी ने सृष्टि की संतुलन-व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए उस बालक का पेट बड़ा कर दिया और उसका सिर गज (हाथी) का कर दिया।
इस प्रकार एक ओर उसका स्वरूप विलक्षण और अद्भुत बना, वहीं दूसरी ओर देवताओं का भय भी समाप्त हो गया। आगे चलकर यही बालक भगवान गणेश कहलाए और वे विघ्नहर्ता, प्रथम पूज्य तथा बुद्धि-विनायक के नाम से प्रसिद्ध हुए।
शिवपुराण के अनुसार गणेश जन्म कथा
शिवपुराण में गणेश जन्म की कथा बहुत ही रोचक और शिक्षाप्रद रूप में वर्णित है।
एक बार माता पार्वतीजी स्नान के लिए जा रही थीं। वे चाहती थीं कि उस समय कोई भी भीतर न आ पाए। उन्होंने अपने उबटन (शरीर पर लगाए जाने वाले लेप) को इकट्ठा करके उससे एक सुन्दर बालक का पुतला बनाया और अपने योगबल से उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर दी। इस प्रकार उस दिव्य बालक का जन्म हुआ।
माता पार्वती ने उस बालक को अपना पुत्र मान लिया और उसे द्वारपाल बनाकर आदेश दिया –
“जब तक मैं स्नान कर रही हूँ, कोई भी भीतर न आए।”
कुछ समय बाद भगवान शिवजी वहां आए। वे अंदर जाना चाहते थे, लेकिन बालक गणेश ने माता के आदेश का पालन करते हुए शिवजी को रोक दिया।
शिवजी ने समझाया –
“मुझे क्यों रोक रहे हो?”
परंतु गणेशजी अडिग रहे और बोले –
“मुझे माता ने आदेश दिया है कि किसी को भी भीतर न जाने दूँ।”
गणेशजी के इस हठ ने भगवान शिव को क्रोधित कर दिया। क्रोधावेश में उन्होंने अपने त्रिशूल से बालक का सिर काट डाला।
जब माता पार्वती बाहर आईं और यह दृश्य देखा तो वे अत्यंत दुखी और कुपित हो उठीं। उन्होंने क्रोध में समस्त जगत को नष्ट करने का संकल्प कर लिया। समस्त देवता भयभीत होकर भगवान शिव से प्रार्थना करने लगे कि पार्वतीजी के क्रोध को शांत करें।
शिवजी ने तुरंत आदेश दिया –
“जो भी प्राणी सबसे पहले मिलता है, उसका मस्तक लेकर आओ।”
देवताओं ने चारों दिशाओं में खोजा और सबसे पहले उन्हें गज (हाथी) का सिर मिला। उसे लेकर वे शिवजी के पास पहुँचे।
भगवान शिव ने उस गजमुख को गणेशजी के धड़ पर स्थापित किया और अपने वरदहस्त से प्राण फूंककर उन्हें जीवनदान दिया।
माता पार्वती प्रसन्न हो गईं।
देवताओं ने मिलकर उन्हें गणपति कहा और शिवजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया –
“तुम सृष्टि के प्रथम पूज्य देवता बनोगे। किसी भी शुभ कार्य में सर्वप्रथम तुम्हारी पूजा होगी।”
इसी क्षण से गणेशजी विघ्नहर्ता, प्रथम पूज्य और गणों के अधिपति के रूप में पूजित होने लगे।