प्रेम ही भगवान को भाता है
एक बार दूर्वास मुनि, देवताओं के शहर अमरावती में गये । पूरा शहर उत्सव शोभा से झलक रहा था। दुर्वास ने यहाँ उपस्थित नारद से इसके बारे में पूछताछ किया ‘इस धूमधाम उत्सव का क्या कारण है?’
नारद ने जवाब दिया ‘आज पूर्णिमा का दिन है, देवताओं के राजा इंद्र, माता (अदिति) की पूजा कर रहे हैं।’ उत्सव की वैभवात्मक तैयारियों को देखकर दुर्वास मुनि आश्चर्य चकित हुए। सैकडों सुवर्ण थालियों में फूलों को सजाकर माँ की पूजा के लिए रखे जा रहे थे। दूर्वास मुनि, इन तैयारियों के वारे में माँ को स्वयं बताना चाह रहे थे। ये माँ के द्वार पर गये। द्वार पालकों ने मुनि से कहा ‘हे मुनिवर। माँ
बीमार हैं। आप उनसे अभी मिल नहीं सकते।’ द्वारपालकों की बातों को नजरंदाज कर मुनि सीधे माँ के कक्ष में गए जहाँ देव माता शैय्या पर लेटी हुई थी।

मुनि ने देवी माँ से पूछा ‘माँ! आप बीमार क्यों पड़ी? आप तो इससे परे हो ना?’ देव माता ने उसका जवाब ऐसा दिया ‘यह सब देवेन्द्र के कारण हुआ जो अपनी संपदा को दिखावे के लिए मेरी पूजा स्वर्ण पुष्पों से कर रहा है। हर स्वर्ण पुष्प ने मेरे शरीर पर लगकर घाव ही छोडा है।’
दुर्वास ने माँ से प्रश्न पूछा ‘यह बताइए माँ कि आपकी चिकित्सा कैसे किया जाय?’ माँ ने जवाब दिया कि ‘वारणासी के विशालाक्षी मंदिर में एक व्यक्ति है जो मेरी चिकित्सा करने में समर्थ है।’
दुर्वास मुनि तुरंत वारणासी गए। वहीं उन्होंने मंदिर में एक व्यक्ति को रोते हुए देखा। वह व्यक्ति माँ के चरणों पर अश्रु बरसा रहा था। मुनि ने उनसे पूछा कि वहाँ कहीं कोई चिकित्सक मिल सकता है क्या? लेकिन उन्हे कोई जवाब नहीं मिला। मुनि ने वारणासी के कई जगहों पर विकित्सक के बारे में पूछ ताछ किया, लेकिन उनके सारे प्रयास व्यर्थ गये।
दूर्वास मुनि पुनः माँ के द्वार पर लौट आये। आश्चर्य की बात थी कि देव माता बड़े आनंद के साथ नृत्य कर रही थी। माँ ने मुनि से प्रश्न किया ‘क्या आपको चिकित्सक मिला?’ ‘नहीं माँ, मुझे मंदिर में कोई नहीं मिला। केवल एक व्यक्ति उस मंदिर की देवता के चरणों में अनु यहा रहा था।
देवमाता ने मुस्कुराकर दूर्वास मुनि से कहा ‘जो वृद्ध तुम्हें दिखाई दिया, वही मेरा चिकित्सक है। उसके द्वारा बहाये गये अबु के हर बूँद ने मेरे शरीर के हर घाव को भर दिया।”
दूर्वास मुनि की यह समझ आया कि जो उत्सव संपदा एंव वैभव के साथ मनाये जाते हैं, उनसे माँ संतुष्ट नहीं होती बल्कि जो व्यक्ति प्रेम तथा श्रद्धापूर्वक अयु बहाता है, वही देवमाता को प्रसन्न कर सकता है।