दिव्य संगीतज्ञ हरिदास

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दिव्य संगीतज्ञ हरिदास


दिल्ली के बादशाह अकबर के दरबार में तानसेन नामक एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ विराजते थे। अकबर ने तानसेन से एक दिन कहा था ‘संगीत में तुम अद्वितीय हो, तुम्हारा समकक्षी कोई हो ही नहीं सकता ।’ लेकिन तानसेन ने कहा ‘नहीं जनाब! एक व्यक्ति है जो मुझसे बढ़कर है।’ बादशाह ने पूछा ‘कौन है वह? कहाँ पर है?’ ‘उनका नाम ‘हरिदास’ है, वे मेरे गुरु हैं। वे वृंदावन में रहते हैं। वे साधु संत हैं। तब बादशाह ने कहा- ‘नहीं! मुझसे कहा गया है कि वे अपने वृंदावन से चाहर नहीं निकलते. इसलिए हम उनके जीवन में दखलंदाज नहीं दे सकते । लेकिन उनके संगीत को सुनने के लिए कोई और रास्ता है क्या?’ तानसेन ने कहा ‘जहाँपनाह! अगर आप इतनी रुचि रखते हैं तो आप उनके वृंदावन में उनके शिष्य के भेष में जा सकते हैं।’

अकबर ने शिष्य के रुप में वृन्दावन में जाने का निर्णय लिया। तब तानसेन ने सहमति दी तथा कहा कि मैं आपके साथ वृंदावन चलूँगा । दोनों वृंदावन के पास गये ।

उस दिन शाम को हरिदास के आश्रम में, अपने गुरु के समक्ष तानसेन ने गाना प्रारंभ किया। जानबूझकर उन्होंने गाते समय कुछ गलतियाँ की थी। हरिदास ने कहा ‘तानसेन! इस गाने को ऐसा नहीं गाते । मैं तुम्हे. गाकर सुनाऊँगा ।’ अकबर आश्चर्यचकित होकर कहने लगे। ‘ऐसा लग रहा है कि स्वयं भगवान ही इसे गा रहे हों। तानसेन ! आप बड़े भाग्यवान हो कि आपको ऐसा गुरु मिला। यह राग पत्थरों को भी पिघला देता है। ऐसा स्वर उनको कहाँ से तथा कैसे ही मिला?’

दिव्य संगीतज्ञ हरिदास

तानसेन ने तब उत्तर दिया ‘जहाँपनाह! मेरे गुरु मुझ जैसे सामान्य व्यक्तियों के लिए नहीं गाते। उनका संगीत केवल भगवान को ही अर्पित होता है।’

अकबर ने कहा ‘चूँकि उनका संगीत केवल भगवान को समर्पित है, इसलिए वह दिव्य संगीत है।’ तानसेन ने अपने गुरु हरिदास से कहा ‘हे गुरुदेव ! जो आये हैं, वे स्वयं बादशाह अकबर हैं। वे मेरे शिष्य के भेष में आपके संगीत को सुनने के लिए आये हैं। कृपया उन्हें आशीर्वचन दीजिए ।’

दिल्ली वापस लौटते समय अकबर ने कहा ‘उनके संगीत ने मुझमें परिणति ला दिया। मुझे हरि और अल्लाह में कोई भेद दिखाई नहीं देता ।’

उस संत का संगीत आज भी वृंदावन में सुनाई देता रहता है।

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