गार्गिमुखी राक्षसी

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गार्गिमुखी राक्षसी


गार्गिमुखी एक राक्षसी थी। वह तिरुप्पुरम् कुंड्रम के पास, एक गुफ़ा में रहा करती थी। कोई व्यक्ति शिवजी की प्रार्थना करता, तो उसे वह अपनी गुफ़ा में कैद कर देती थी। वह, एक हजार ऐसे व्यक्तियों को कैद कर एक झटक में काली माता को बलि देना चाह रही थी। उसने अब तक नौ हजार निन्यानब्बे व्यक्तियों को बंदी बनाया था। उसको केवल एक व्यक्ति चाहिए था, एक हजार की संख्या को बनाने के लिए ।

एक दिन एक महान शिव भक्त उस गुफ़ा के निकट स्थित नदी में स्नान करके एक पेड के नीचे शिव की आराधना में लग गया था।

उसी समय मंद गति से हवा का बहना प्रारंभ हुआ। पेड़ से पत्ते झडने लगे। एक पत्ता नदी के कूल पर गिरा और तुरंत एक चिडिया बन गया। दूसरा पत्ता नदी में गिरा और वह पत्ता मछली में बदला ।

चिडिया, मछली को नदी से बाहर ले आने का प्रयास कर रही थी जबकि मछली बाहर निकलना नहीं चाह रही थी।

नक्कीरन जो चिडिया तथा मछली के बीच के संघर्ष को देख रहा था, अपनी जगह से उठकर, चिडिया का पीछा करने लगा और इस प्रकार मछली के प्राणों की रक्षा कर रहा था।

गार्गिमुखी राक्षसी

गार्गिमुखी जो इस सब को देख रही थी, ने नक्कीरन को बंदी बना दिया यह कहते हुए कि उसने आधी पूजा को छाड़ेकर अपनी जगह से उठ गया था। दानवी बहुत संतुष्ट हो गई थी क्योंकि उसे कलिका देवी को बलि चढ़ाने के लिए एक हजार साधु मिल गये हैं।

दानवी के कारावास में बंद सभी लोगों ने नक्कीरन से यह कहा था कि दानवी ने इन सभी को कुत्सित मति से कालिकादेवी को बलि चढ़ाने के लिए कैद किया है। सभी लोग इसके बारे में सोचकर भय खाने लगे ।

नक्कीरन ने सभी से कहा कि वे शांत रहें और भय कभी न खायें । उसके बाद उसने भगवान मुरुगा की स्तुति करने लगा। मुरुगा, जो भक्तों के पाश में बंदा रहता है, वह कारावास को खोलने के लिए एक बिजली की कडक को भेजा। उस कडक ने गुफ़ा के द्वार को खोल दिया । सभी साधु मुक्त हो गए।

दानवी को झटका जैसा पहुँचा। भगवान मुरुगा ने वहाँ आकर दानवी के हृदय को चीरकर उसे मार दिया ।

सभी साधु यति ने संतुष्ट होकर भगवान मुरुगा की स्तुति की तथा अपने-अपने रास्ते पकडकर घर वापिस लौट गये ।

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