कावडि कथा

By Admin

Published on:

कावडि कथा


हिमालय पर्वत श्रेणियों में शिव गिरि और शक्ति गिरि नामक दो पहाड़ हैं। उसे उत्तर भारत से दक्षिण भारत जो अगस्त्य मुनि का स्वधाम था, यहाँ ले आने के लिए अगस्त्य मुनि ने सोचा। भगवान मुरुगा के द्वारा प्रदत्त शक्ति व आशीर्वाद के कारण, अगस्त्य मुनि उन पर्वतों को उठाकर ले आने लगा। चलते समय तिरुकेदरम नामक स्थान के पास स्थित जंगल में आराम लेने के लिए अगस्त्य ने उन पर्वतों को वहाँ उत्तारा । भगवान मुख्गा के आशीर्वचन प्राप्त इडुम्बासुर उस ओर आने लगे ।

उसने अगस्त्य मुनि को नमन किया तथा मुनि से पूछा ‘हे मुनिवर में वाकी जीवन भगवान मुरुगा की सेवा में बिताना चाहता हूँ. कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिए ।

मुनि ने उत्तर दिया ‘इन पहाड़ों को मेरे स्थान पर पहुँचाओ । मुरुगा तुम्हें आशीर्वाद देंगे।’ इडुम्यासुर ने इस वात को बड़े चाव से स्वीकार किया। जब असुर ने उन पहाडों को उठाने का प्रयास किया तय उन्हें, वह जरा भी हिला नहीं पाया। असुर ने मुनिवर से पूछा है मुनिश्रेष्ठ! में ने इससे भी बड़े बड़े पहाड़ों को हिलाया है, लेकिन इन पहाड़ों की में हिला नहीं पा रहा हूँ। इसलिए मुझे पर्याप्त शक्ति दो ताकि मैं इन्हें आपके स्थान को पहुँचाऊँ।

कावडि कथा

मुनिवर ने इडुम्यासुर से कहा कि तुम भगवान मुरुगा को प्रार्थना कगे। इडुम्बासुर ने अगस्त्व के वचनों का पालन किया। इतने में आठ सर्पों का साक्षात्कार हुआ और वे सभी रस्सियों में बदल गये। ब्रह्मदण्ड एक बड़े लकड़ी लड्डा में परिवर्तित हुआ। मुनि ने इदुम्यासुर से पूछा ‘चारों रस्सियों को उस लकड़ी लड्ढे से बाँधी और बाद में उठाओ।” इडुम्यासुर ने उसे कावड़ी के रूप में उठाया। मुनि ने उससे कहा तुम दक्षिण की दिशा में अग्रसर हो जाओ। मैं तुम्हारे पीछे पीछे चलूँगा। इदुम्थासुर ‘तिरूवाविनन्कुडि’ नामक स्थान पर गया। यहाँ उसको आराम करना था और इसलिए उसने पहाड़ों को वहाँ रखा। थोड़ी देर के बाद यह पहाड़ों को हटाने का काम किया, लेकिन उससे नहीं हो पाया। वहीं निकट एक विल्व वृक्ष के नीचे एक छोटा लडका खड़ा होकर इस दृश्य को देख रहा था। इडुन्यासुर उसके पास दौड़ता गया। लेकिन फिसलकर वह लड़के के पैरों पर गिर कर मर गया। इडुम्बासुर की पत्नी, पति देहांत का समाचार पाकर दीडती आई और मुरुगा की प्रार्थना की यथा

‘करुणामची भगवान! मेरे पति को बचाओ। उसने आपको ही पहचाना। उस बच्चे ने भगवान मुरुगा का रूप धारण किया। उसने इडुम्थासुर को जिलाया। उसने ऐसा कहा ‘इन दोनों पहाड़ों को यही रहने दो। इन पर्वत चरणों की तुम रक्षा करोगे। जिस भांति तुमने अपनी भुजाओं पर इन पहाडों को उठाया है, उसी भांति मेरे भक्त भी ‘कायडी’ उठायें और मेरा दशर्न करें, वह मुझे भाता है।

आज भी भक्तगण पर्वतचरणों के पास स्थित इडुम्बासुर की मूर्ति को नमन करके पर्वतारोहण करते हैं।

Leave a Comment