कश्मीरी दुशाला
एकदा समय में, विजयनगर राज्य में चोक्कलिंगम् शासन चला रहे थे। एक दिन वे अपने मंत्रियों के साथ गणेश एवं पार्वती देवी की पूजा पूरा करके राजमंदिर वापस लौट रहे थे। मार्ग में उन्होंने ‘तायुमानवर’ नामक एक तपस्वी को एक पेड के नीचे तपस्या करते हुए देखा। वहाँ ठण्ड पड रही थी और तपस्वी काँप रहा था। तब राजा ने अपने सेवकों से एक अच्छा कश्मीरी दुशाला, तपस्वी को भेंट के निमित्त ले आने की आज्ञा दी। आज्ञा के अनुसार सेवक ने एक मूल्यवान दुशाला खरीदकर लाया। उस दुशाला को राजा ने तपस्वी को भेंट दिया। राजा बाद में अपने राचमंदिर में लौट गया ।
तपस्या पूरा करने के उपरांत, वह भिक्षाटन के लिए निकलता था । हर दिन की भांति उस दिन को भी वह भीख माँगने निकला। मार्ग में उसने एक निर्धन लडकी को ठण्ड के मारे थर थर कांपते हुए देखा। तपस्वी ने उस लडकी को अपने पास बुलाया। वहाँ की प्रजा ने साधु को मना करते हुए कहा ‘हे स्वामीजी ! उस लडकी को मत छुओ। वह अछूता है। लोगों ने उसे आप तक जाने के लिए भी मना किया है।

स्वामीजी ने उनकी एक नहीं मानी। उन्होंने लडकी को पास बुलाया और लडकी आई भी। तपस्वी, उस लडकी को दुशाला देकर, उसे नमन कर, वहाँ से चला गया। राजा का गुप्तचर इस पूरे प्रसंग को देख रहा था। उसने राजा के पास जाकर कहा ‘हे राजन् ! आपने जिस अनमोल
दुशाला उस तपस्वी को दिया था, उसे तपस्वी ने एक अछूता को दे दिया। लोगों ने साधु को बहुत मना किया था, लेकिन उसने किसी की नहीं सुनी थी ।’ राजा को यह बात बहुत बुरी लगी। उसने कहा ‘मैं ने बड़े गौरव के साथ उस तपस्वी को दुशाला दिया था। उस भेंट को वह ऐर गैर अछूता को कैसे दे सकता है? मैं उस तपस्वी से जवाब चाहता हूँ। उसे तुरंत कचहरी में लिवा लाओ ।’
स्वामी जी कचहरी में आये। राजा ने उससे पूछा ‘मैं यह जानना चाहता हूँ कि जो दुशाला मैं ने आप को सम्मानपूर्वक भेंट दिया, उसे, एक अछूता को देकर मेरा अपमान क्यों किया?’ तपस्वी ने उत्तर दिया ‘हे राजन् ! मैं ने अपने से उसे ज्यादा महान मानकर उस लडकी को भेंट दिया। एक भक्त होकर, क्या आप इतना भी जान नहीं पाये?’ आश्चर्यचकित होकर राजा ने तपस्वी से प्रश्न किया ‘एक अछूता महान कैसे मानी जाती है?’ उत्तर में तपस्वी ने ऐसा कहा ‘हे राजन्! मेरी एक बात सुनो। भगवान और जगजननी हर एक के हृदय में वास करते हैं। यह अछूता स्वयं जगजननी थी जो मेरी परीक्षा लेने आई थी। मैं हर एक के हृदय में भगवती का वास देखता हूँ। उस लडकी को भेंट में दे दी।’ आप अपने आप को सौभाग्यशाली समझना चाहिए क्योंकि आपके द्वारा दिया गया दुशाला स्वयं जगजननी तक पहुँच गई ।’
यह सुनकर राजा तथा रानी ने उस तपस्वी के सामने घुटने टेक दिये और कहा ‘हमारी अविद्या के लिए हम क्षमा चाहते हैं। हमने आपके सुकर्म को जान लिया ।