कर्ण : श्रेष्ठ दाता
एक वार भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा ‘हे अर्जुन ! तुम धनुर्विद्या में श्रेष्ठ हो सकते हो, लेकिन दान देने में कर्ण का समवर्ती कोई नहीं है।
अर्जुन ने अपमान मेहसूस करते हुए कहा ‘आप सदा कर्ण की प्रशंसा करते हो, दान देने में मैं कर्ण से कहीं कम नहीं हूँ।’
श्रीकृष्ण ने केवल एक मुस्कान फेंकी ।
तभी उन दोनों ने कहीं दूर से एक ब्राह्मण को अपनी ओर आते देखा । ब्राह्मण इनके निकट आया और अर्जुन से याचना की, यथा ‘हे राजा! मेरी पत्नी का देहांत हुआ। उसके दहन संस्कार के लिए मुझे लकडी तथा चंदन लकड़ी चाहिए। क्या आप इन्हें दिलवा सकते हैं?’

अर्जुन ने अपने एक सेवक को बुलाकर, ब्राह्मण द्वारा माँगी गई वस्तुओं को ले आने के लिए आज्ञा दी। सेवक गया और थोडी देर बाद खाली हाथ लौट आकर कहा ‘हे राजा! किसी प्रकार की लकडी न आपके भवन में और ना ही इस गाँव में उपलब्ध है।’ अर्जुन ने ब्राह्मण से खेदपूर्वक निःसहायता का भाव प्रकट किया। ब्राह्मण ने यह कहकर वहाँ से चला गया कि मैं कर्ण के पास जाकर मदद माँगूँगा। ब्राह्मण सीधे कर्ण के पास गया और उससे लकडी एवं चंदन लकडी माँगी ।
कर्ण ने अपने सेवक को भेजकर ब्राह्मण का मुँहमाँगा चीज ले आने के लिए कहा। वह सेवक भी यह कहते हुए खाली हाथ लौटा कि न कर्ण के भवन में और ना ही उस गाँव की दूकानों में लकडी उपलब्ध था। निराश होकर, ब्राह्मण वहाँ से वापस लौटने लगा। इतने में कर्ण ने उस ब्राह्मण से कहा “कृपया रुकिये। मेरे पास आने वाला याचक, खाली हाथ लौटे, यह मुझे पसंद नहीं है, मेरे भवन के स्तंभ चंदन के बने हैं।” कर्ण ने अपने सेवक को आज्ञा दी ‘जाकर एक कुल्हाडी लेकर आओ ।’ फिर कर्ण ने सेवक को आज्ञा दी “मेरे भवन के सभी स्तंभों को काट डालो, वह इनके लिए काम आयेगा ।”
जब सेवक स्तंभों को काट रहा था, तब महल का एक भाग टूट पडा । तब कर्ण ने सेवक से कहा ‘इन लकडियों को ढंग से गाडी में रखकर उस ब्राह्मण के साथ भेजो ।
अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने चंदन लकडी से भरी गाडी को देखा । ब्राह्मण ने उन्हें सविस्तार बताया कि कैसे कर्ण ने अपने महल की लकडी को कटवाया था ।
तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पूछा ‘क्यों अर्जुन ! क्या तुम कम से कम अब स्वीकार करोगे कि कर्ण दान देने में कितना समर्थ है?