अगस्त्य मुनि के द्वारा रावणासुर का हार

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अगस्त्य मुनि के द्वारा रावणासुर का हार


असुरों के राजा रावण लंका के राजा थे। एक दिन उनके मस्तिष्क में एक क्रूर इच्छा पैदा हुई।

मैं ने सभी देवताओं पर जीत पाई। लेकिन भारत देश के दक्षिण भाग पर मेरा अधिकार नहीं जमा है। मुझे उस भू-भाग को जीतकर अपने अधीन ले आना होगा ।’

कुछेक गुप्तचरों के साथ रावणासुर दक्षिण भारत की ओर गया। चढ़ाई करने से पहले उसको उस प्रांत के बारे में जानकारी प्राप्त करनी थी।

वह दक्षिण भारत के पोदिर्ग पहाड़ पर गया। अगस्य महामुनि वहाँ निवास बनाये हुए थे। रावणासुर उनसे जा मिले। मिलन के तुरंत वाद अगस्त्य महामुनि ने रावणासुर के कुत्सित मन को पहचान लिया ।

रावण ने मुनि की वन्दना की अगस्त्य मुनि को मेरा प्रणाम मुनि ने उनको उत्तर दिया शिव के अद्वितीय भक्त जिसने तीन सी लाख वर्षों के लिए जीने का वर प्राप्त किया, ऐसे श्रेष्ठ लंकापति को मेरा स्वागत है। अंदर आइए ।

अगस्त्य मुनि के द्वारा रावणासुर का हार

मुनि ने रावणासुर से पूछा ‘हे रावणों कौन-सी इच्छा तुम्हें इस पृथ्वी पर ले आई है?’ रावण ने सच्ची बात कही हे मुनि! में इस भू भाग को जीतकर अपने अधीन में आना चाहता हूँ।’ ‘मैं इस प्रांत की स्थिति गतियों का अध्ययन करने आया हूँ।’ अगस्त्य ने रावण से पूछा – तुम रुद्रवीणा बजाने में प्रवीण हो ना?’ ‘जी हाँ रावण ने कहा। अगस्य ने पुनः रावण से कहा ‘तब तो तुम्हें मेरे साथ वीणावादन की प्रतियोगिता में भाग लेना होगा। अगर तुम मुझे हराओगे, तो तुम्हारी इच्छा की पूर्ति भी हो जाएगी। रावण ने उत्तर दिया ‘आपका प्रस्ताव मुझे मंजूर है।

यह समाचार पूरे देश में फैल गई। हजारों की संख्या में लोग प्रतियोगिता को देखने आए। रावण ने पहले अगम्य को वीणा बजाने के लिए कहा, यथा आप पहले वीणा बजाइये ताकि उसकी सुरीली धुन में मेरा मन गल जाये।’ अगस्त्य ने पूछा ‘लेकिन लोग कैसे जान पायेंगे कि मेरे संगीत को सुनकर तेरा मन स्पंदित हुआ? मैं इसे इतनी सुरीली आवाज में बजाऊँगा, कि हमारे सामने स्थित पोदिगल पर्वत पिघल कर आँसू वहायेगा।’

अगस्त्य ने वीणा बजाना प्रारंभ किया। आश्चर्य की बात! पोदिग पर्वत धीरे धीरे पिघलने लगा। रावणासुर भी अचंभा रह गये। उसे भी पता था कि जितना अगस्त्य ने पाया, उतना वह पा नहीं पायेगा। वह नतमस्तक होकर बैठ गया।

अपनी हार की स्वीकार करते हुए रावण ने कहा ‘हे महामुनिः में अपना हार मानता हूँ। वीणा बजाने में आप जितने प्रवीण हैं, उत्तना में नहीं हूँ। जो भू-भाग आपके अधीन है, उसे हरपने का साहस में नहीं करूंगा।’

अगस्य मुनि से अनुमति लेकर रावणासुर लंका वापस लौट गया।

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