कर्म पर गीता के श्लोक

भगवद गीता, वेदों की महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है जो भारतीय संस्कृति और धर्म के आध्यात्मिक मूल्यों को समझाता है। गीता के पाँच अध्याय कर्म के महत्व को विस्तार से बताते हैं, जिसमें अर्जुन और कृष्ण के बीच उत्कृष्ट संवाद के माध्यम से कर्म के साधना, सामर्थ्य, और उसके महत्व को प्रकट किया गया है। गीता के श्लोकों में कर्म की महत्वपूर्ण सिद्धांतों का विवेचन होता है, जो हमें अपने कार्यों को समझने और सही दिशा में चलने में मदद करते हैं।

जब हम भगवद्गीता के महान ग्रंथ की ओर मुड़ते हैं, तो हमें कर्म के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का संदेश मिलता है। यहाँ कुछ उन अद्वितीय कर्म पर गीता के श्लोक का संकलन है जो हमें कर्म के तात्पर्य और महत्व को समझाते हैं:

#1 कर्म पर भगवद गीता श्लोक 2.47:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।

कर्म पर गीता के श्लोक- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते

अर्थ: तुम्हारा कर्तव्य कर्म करना है, परंतु कर्मफल की आकांक्षा मत करो। क्योंकि कर्मफल के लिए ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म में नहीं।

#2 कर्म पर गीता के श्लोक 3.16:

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।

अर्थ: परंपरागत कर्म की उपदेश अनुसार कार्य नहीं करने वाला इंसान नष्ट हो जाता है। हे पार्थ, वह व्यक्ति जीवन में अविवेकी हो जाता है।

#3 कर्म पर भगवद गीता श्लोक 3.19:

कर्म पर गीता के श्लोक- तस्मादसक्त_ सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:।।

अर्थ: हमें संग के बिना लगातार कर्म करना चाहिए। क्योंकि बिना आसक्ति के किया गया कर्म ही पुरुष को परम सिद्धि को प्राप्त कराता है।

#4 कर्म पर गीता के श्लोक 3.20:

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।

  • अर्थ: जनक जैसे महान व्यक्तियाँ भी केवल कर्म में ही सिद्धि को प्राप्त करती हैं। इसलिए, तू भी केवल लोक संग्रह के लिए कर्म करने के योग्य है।

#5 कर्म पर भगवद गीता श्लोक 3.27:

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वश:।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।

  • अर्थ: सब प्रकार के कर्म गुणों के अनुसार ही किए जाते हैं। अहंकार से मोहित व्यक्ति स्वयं को कर्ता मानता है।

#6 कर्म पर गीता के श्लोक 3.35:

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।।

  • अर्थ: अपने धर्म को अविकृत रूप से निभाना उत्तम है, पराये धर्म का पालन करना अधम है। अपने धर्म का पालन करने से मनुष्य का उत्तम लाभ होता है, पराये धर्म में जाने से भ

य का सामना करना पड़ता है।

#7 कर्म पर गीता श्लोक 4.20:

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:।।

  • अर्थ: तू ज्ञान को गुरु की शरण में समर्पित होकर, उससे अच्छे संदर्भ में प्रश्न पूछकर और सेवा करके प्राप्त कर। ज्ञानी मुनि ही तेरे लिए तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।

#8 कर्म पर गीता के श्लोक 4.47:

कर्म पर गीता के श्लोक- योगेन कर्मणो न्यस्तं ज्ञानां योगेन संख्यानम्।

योगेन कर्मणो न्यस्तं ज्ञानां योगेन संख्यानम्।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।।

  • अर्थ: कर्मयोग से कर्म को निर्बाध कर, और ज्ञानयोग से ज्ञान को प्राप्त कर, कर्मफल में कभी आसक्ति मत रख। क्योंकि कर्म में ही तेरा अधिकार है, कर्मफल में नहीं।

#9 कर्म पर गीता श्लोक 4.18:

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्।।

  • अर्थ: वह ज्ञानी जिसे कर्मयोग और अकर्मण्यों की समझ हो, उसी को सब मनुष्यों में सब कर्मों को करने योग्य माना जाता है।

#10 कर्म पर गीता के श्लोक 5.11:

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये।।

  • अर्थ: योगी मान, अपने शरीर, मन और बुद्धि के द्वारा ही कर्म करते हैं, इंद्रियों के साथ संग त्यागकर अपने आत्मा की शुद्धि के लिए।

ये श्लोक भगवद्गीता में कर्म के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को समझाते हैं और हमें सही जीवन दिशा प्रदान करते हैं। इन उद्धरणों के माध्यम से, हमें यह बोध होता है कि सही कर्म पथ पर चलना हमारे जीवन के लिए कितना महत्वपूर्ण है।


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