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घमंड पर संस्कृत श्लोक – विवरण और भावार्थ:

By Admin

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घमंड या अहंकार वह नकारात्मक भाव है जो व्यक्ति को अपनी क्षमताओं, उपलब्धियों या संपत्ति के प्रति अत्यधिक गर्वित और दूसरों के प्रति असम्मानजनक बना देता है। संस्कृत शास्त्रों और श्लोकों में घमंड को विनाश की ओर ले जाने वाला मार्ग बताया गया है, क्योंकि यह व्यक्ति के ज्ञान, विचार और रिश्तों को दूषित करता है। घमंड एक ऐसा दोष है जो व्यक्ति की प्रगति और विनम्रता को बाधित करता है। आइए कुछ संस्कृत श्लोकों के माध्यम से घमंड के नकारात्मक प्रभावों को समझें, जो हमें विनम्रता और सच्ची मानवता का महत्व बताते हैं।

यहाँ कुछ घमंड पर संस्कृत श्लोक हैं जो अहंकार के विनाशकारी प्रभावों का वर्णन करते हैं। ये श्लोक हमें सिखाते हैं कि घमंड व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है और विनम्रता ही सच्ची सफलता की कुंजी है।

घमंड पर संस्कृत श्लोक

मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः।।

हिंदी अर्थ:
एक मूर्ख व्यक्ति की पहचान उसके गर्व, दुष्ट बातें, क्रोध, जिद्दी तर्क, और दूसरों के प्रति सम्मान की कमी से की जाती है। ये विशेषताएँ उसके मूर्ख होने की पुष्टि करती हैं और समाज में उसकी साख को प्रभावित करती हैं।

भावार्थ: मूर्ख व्यक्ति की पहचान उसकी विशेषताओं से की जाती है। इसमें गर्व, दुष्ट वार्तालाप, क्रोध, जिद्दी तर्क, और दूसरों के प्रति सम्मान की कमी शामिल है। वह अपनी क्षमताओं को अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करता है, दूसरों को अपमानित करता है, छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा करता है, अपने विचारों को अडिग तरीके से थोपता है, और दूसरों की भावनाओं की अनदेखी करता है।


नास्त्यहंकार समः शत्रुः

हिंदी अर्थ: अहंकार के समान कोई शत्रु नहीं है। अहंकार व्यक्ति को आत्मसमर्पण और स्वीकृति के मार्ग से हटा देता है और उसे अपनी गलतियों को मानने में विफल करता है।

भावार्थ: अहंकार, यानी अपने आप को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानना, किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा शत्रु है। यह व्यक्ति के मानसिक और सामाजिक विकास में बाधक होता है, क्योंकि यह उसे अपनी गलतियों को स्वीकारने और सुधारने से रोकता है। अहंकार के कारण व्यक्ति अपने दोषों को नजरअंदाज करता है और दूसरों के प्रति असंवेदनशील हो जाता है।


दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कत्व्योन बहुरत्ना वसुधरा॥ १४/८

हिंदी अर्थ: दान, तपस्या, साहस, विद्या और विनम्रता में अहंकार नहीं करना चाहिए। इस पृथ्वी पर बहुत सारे महान लोग हैं, जिनके पास अद्वितीय गुण हैं। इसलिए, किसी भी व्यक्ति को अपनी दानशीलता, तपस्या, शौर्य, विद्या और विनम्रता पर गर्व नहीं करना चाहिए।

भावार्थ: दान, तपस्या, शौर्य, विद्या, और विनय में अहंकार नहीं करना चाहिए। इस पृथ्वी पर कई महान लोग हैं, जिनके गुण और उपलब्धियाँ अद्वितीय हैं। इसलिए, किसी को भी अपने गुणों और उपलब्धियों पर गर्व नहीं करना चाहिए, बल्कि विनम्रता और आभार के साथ अपनी क्षमताओं का उपयोग करना चाहिए।


प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ ३/२७

हिंदी अर्थ: सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं; लेकिन जो व्यक्ति अहंकार से मोहित होता है, वह स्वयं को उन कर्मों का कर्ता मान लेता है।

भावार्थ: सभी कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा होते हैं। व्यक्ति का कर्म उसके चारों ओर की प्रकृति और उसकी विशेषताओं के अनुसार संचालित होता है। अहंकार से प्रभावित व्यक्ति अपने आपको उन कर्मों का मुख्य कर्ता मान लेता है।


अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
ममात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥ १६/१८

हिंदी अर्थ: जो लोग अहंकार, बल, गर्व, कामना और क्रोध का आश्रय लेते हैं, वे स्वयं और दूसरों के शरीर में (रहने वाले) परमात्मा के साथ द्वेष करते हैं और दूसरों के गुणों में दोष निकालते हैं।

भावार्थ: जो लोग अहंकार, बल, दर्प, कामना और क्रोध का आश्रय लेते हैं, वे परमात्मा और दूसरों के गुणों में दोष ढूंढते हैं। ऐसे लोग दूसरों के साथ द्वेषपूर्ण व्यवहार करते हैं और दूसरों के गुणों में कमी निकालते हैं।


अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥ १७/५

हिंदी अर्थ: जो लोग शास्त्रों के निर्देशों के बिना कठोर तपस्या करते हैं और दम्भ और अहंकार से युक्त होते हैं, वे भोगों की इच्छा और हठ से प्रेरित होते हैं, ऐसे तपस्वी दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं और उनका तप उचित परिणाम नहीं लाता।

भावार्थ: जो लोग शास्त्रों के निर्देशों के बिना कठोर तपस्या करते हैं, वे दम्भ और अहंकार से युक्त होते हैं और भोगों की इच्छा, आसक्ति, और हठ से प्रेरित होते हैं। ऐसे तपस्वी वास्तव में दूसरों को हानि पहुँचाते हैं और उनका तप नकारात्मक परिणाम उत्पन्न करता है।

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