Surya Suktam( सौरसूक्तम् ): सूर्य सूक्तम के लाभ,अर्थ सहित अनुबाद ,Pdf

सूर्य सूक्त ऋग्वेद का एक सूक्त है जिसका उल्लेख १०१वें मंडल में होता है। इस सूक्त में देवता के रूप में सूर्य की प्रशंसा की जाती है और उनके गुणों का वर्णन किया गया है। कुत्स आङ्गिरस ऋषि इस सूक्त के संदर्भ में उल्लेखित हैं। इस सूक्त के छंद में त्रिष्टुप् छंद का प्रयोग किया गया है।

सूर्य सूक्त के अनुसार, सूर्य पूरे विश्व को प्रकाशित करने वाले ज्योतिर्मय नेत्र हैं। वे जगत् की आत्मा हैं और सभी प्राणियों को सत्कर्मों में प्रेरित करने वाले देवता हैं। सूर्य का देवमण्डल में एक विशेष और अद्वितीय स्थान होने का कारण यह है कि वे प्रत्यक्ष रूप से जीवों के लिए दृश्यमान होते हैं। वे सभी प्राणियों के लिए आरोग्य प्रदान करने वाले हैं और सर्वविध कल्याण करने वाले हैं, इसलिए उन्हें स्तवनीय और वंदनीय माना जाता है।

Table of Contents

ऋग्वेदीय ‘सूर्य सूक्तम’ । Surya Suktam Rigveda Lyrics

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ १ ॥

सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्त्यो न योषामभ्येति पश्चात् ।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ॥ २ ॥

भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः ।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः ॥ ३ ॥

तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ४ ॥

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रुपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ ५ ॥

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ ६ ॥

सूर्य सूक्तम अर्थ सहित अनुबाद

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ १ ॥

सूर्यमण्डल के रूप में उदित हो रहे हैं प्रकाशमान रश्मियों का समूह, जिन्हें राशि-राशि देवगण कहा जाता है। इन देवताओं में मित्र, वरुण, अग्नि और सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र सम्मिलित हैं। इन देवताओं ने अपने उदित होने के बाद द्युलोक, पृथ्वी और अन्तरिक्ष को अपनी चमकीली प्रकाश रश्मियों से सर्वत्र समृद्ध कर दिया है। ये सूर्यमण्डल में स्थित सूर्य देवता अन्तर्यामी होने के कारण सभी प्राणियों के प्रेरक परमात्मा हैं और जगत् में जंगम और स्थावर सृष्टि की आत्मा हैं।

सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्त्यो न योषामभ्येति पश्चात् ।
यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ॥ २ ॥

सूर्य, गुणों से सजी हुई और प्रकाशमान, उषा देवी के पीछे एक व्यक्ति की तरह चलता है, जो सर्वांग सुंदरी युवती का अनुगमन कर रहा होता है। जब मोहक उषा प्रकट होती है, तब सूर्य की पूजा में अर्पित लोग, अपने कर्तव्य-कर्म का सम्पादन करने के द्वारा, प्रकाश के देवता सूर्य की आराधना करते हैं। सूर्य शुभ और कल्याण स्वरूप हैं और उनकी पूजा से – कर्तव्य-कर्म का पालन करके – कल्याण की प्राप्ति होती है। ॥ २ ॥

भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः ।
नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः ॥ ३ ॥

सूर्य की यह किरणें एक अश्व की तरह हैं, जो हर जगह जानेवाली, चमत्कारिक और कल्याण स्वरूप है। यह हर दिन और अपने नियमित पथ पर ही चलता है, पूज्य और स्तुत्य है। यह सबको नमस्कार करने की प्रेरणा देता है और खुद दिव्य लोक के ऊपर आवास करता है। यह तत्काल दिव्य लोक और पृथ्वी का घूमने का कार्य संपादित करता है।

तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ४ ॥

यह ईश्वरीय सूर्य, सबके आंतर्यामी और प्रेरक होने के कारण महत्वपूर्ण है, क्योंकि जब वे अपने संकल्पित कार्यों को पूरा करने के बाद अपरिसमाप्त रहते हैं, तब वे अविचलित रूप से अपनी किरणों को इस संसार से अपने आप में समेट लेते हैं। साथ ही, वे उसी समय अपनी किरणों और यात्री घोड़ों को एक स्थान से खींचकर दूसरे स्थान पर नियुक्त कर देते हैं। उसी समय, रात्रि अंधकार के आवरण से सभी को आवृत्ति कर देती है।

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रुपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ ५ ॥

प्रेरक सूर्य प्रातःकाल मित्र, वरुण, और संपूर्ण सृष्टि को सामने से प्रकाशित करने के लिए पूर्वी दिशा के आकाश में अपना प्रकाशक रूप प्रकट करते हैं। उनकी रश्मियाँ, या हरे घोड़े, मजबूत रात्रि के अंधकार को नष्ट करने में सक्षम, अद्वितीय तेज को धारण करती हैं। उनके अन्यत्र जाने से रात्रि में काले अंधकार की उत्पत्ति होती है।

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ ६ ॥

हे प्रकाशमय सूर्य की किरणें! आज सूर्योदय के समय विभिन्न दिशाओं में बिखरकर तुम हमें पापों से मुक्त करके बचा लो। न केवल पाप से ही, बल्कि सभी अपवित्रता, अन्याय, दुःख और दारिद्र्य से हमें सुरक्षित रखो। जो कुछ हमने कहा है – मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी और द्युलोक के अधिष्ठातृ देवताएं – उन्हें आदर और स्वीकृति प्राप्त हो, और वे भी हमारी सुरक्षा करें।


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https://youtu.be/GaBl4LTap54
शुक्ल यजुर्वेद सूर्य सूक्त

शुक्ल यजुर्वेदोक्त सूर्य सूक्तम

शुक्ल यजुर्वेद के ऋषि ‘विभ्राड्’ हैं और देवता ‘सूर्य’ हैं, छंद ‘जगती’ है। ये सूर्यमण्डल के प्रत्यक्ष देवता हैं, जिनका प्रतिदिन सभी को दर्शन होता है। पञ्चदेवों में भी सूर्यनारायण को पूर्णब्रह्म के रूप में उपासना की जाती है। भगवान सूर्यनारायण को प्रसन्न करने के लिए प्रतिदिन ‘उपस्थान’ और ‘प्रार्थना’ में ‘सूर्यसूक्त’ का पाठ करने की परंपरा है। ‘सूर्यसूक्त’ शरीर के असाध्य रोगों से मुक्ति प्राप्त करने में अद्वितीय शक्ति रखता है।

विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम् ।
वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजाः पुपोष पुरुधा वि राजति ॥ १ ॥

उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २ ॥

येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ२ अनु ।
त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३ ॥

दैव्यावध्वर्यू आ गत रथेन सूर्यत्वचा ।
मध्वा यज्ञ समञ्जाथे ।
तं प्रत्नथाऽयं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४ ॥

तं प्रलथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदᳬस्वर्विदम् ।
प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनु यासु वर्धसे ॥ ५ ॥

अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने ।
इममपासङ्गमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति ॥ ६ ॥

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७ ॥।

आ न इडाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु ।
अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा ॥ ८ ॥

यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य ।
सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९ ॥

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥ १० ॥

तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ११ ॥

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ १२ ॥

बण्महाँ२ असि सूर्य बडादित्य महाँ२ असि ।
महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ२ असि ॥ १३ ॥

बट् सूर्य श्रवसा महाँ२ असि सत्रा देव महाँ२ असि ।
मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४ ॥

श्रयन्त इव सूर्यं विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ।
वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम् ॥ १५ ॥

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६ ॥

आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्य च ।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ १७ ॥

 

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शुक्ल यजुर्वेद सूर्य सूक्तम के हिंदी अनुबाद

विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम् ।
वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजाः पुपोष पुरुधा वि राजति ॥ १ ॥

जो वायु से प्रेरित आत्मा द्वारा प्रजा की रक्षा और पालन-पोषण करता है, उसे महान दीप्तिमान सूर्य कहा जाता है। वह अखण्ड आयु प्रदान करता है और अनेक प्रकार से शोभा प्राप्त करता है। ऐसा सूर्य, मधुर सोमरस का सेवन करके आनंदित होता है॥ १ ॥

उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २ ॥

विश्व की दर्शन-क्रिया को सम्पादित करने के लिए, ज्योतिर्मय सूर्यदेव अग्नि-ज्वाला के समान उद्गमित होते हैं और ब्रह्म-ज्योतियों को ऊपर उठाए रखते हैं।

येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ२ अनु ।
त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३ ॥

हे पावकरूप और वरुणरूप सूर्य! जैसे तुम ऊर्ध्वगामियों को देखते हो, उसी महान कृपादृष्टि से सभी लोगों को देखो॥ ३॥

दैव्यावध्वर्यू आ गत रथेन सूर्यत्वचा ।
मध्वा यज्ञ समञ्जाथे ।
तं प्रत्नथाऽयं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४ ॥

हे दिव्य अश्विनीकुमारों! तुम भी सूर्य की कांति से प्रकाशित रथ में आओ और हविष्य से यज्ञ को पूर्ण करो। इसे वही करे, जिसे चन्द्रदेव ने प्राचीन विधि से अद्भुत बनाया है॥ ४॥

तं प्रलथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदᳬस्वर्विदम् ।
प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनु यासु वर्धसे ॥ ५ ॥

जो यज्ञ और अन्य श्रेष्ठ क्रियाओं में प्रमुख हैं, पापों का नाश करने वाले हैं, विस्तारवाले हैं, श्रेष्ठ आसन पर स्थित हैं और स्वर्ग के ज्ञानी हैं, हम आपको पुरानी विधि से, पूर्ण विधि से, साधारण विधि से और इस वर्तमान विधि से समर्पित करते हैं॥ ५॥

अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने ।
इममपासङ्गमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति ॥ ६ ॥

जब जल का निर्माण होता है, तब चन्द्रमा ज्योतिर्मण्डल से आवृत होता है और अंतरिक्ष में स्थित जल को प्रेरित करता है। इस जल के समय, ब्राह्मण एक सरल वाणी से चन्द्रमा की स्तुति करते हैं॥ ६॥

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७ ॥

यह अद्भुत है कि स्थावर और जंगम जगत् की आत्मा, किरणों का संग्रह, अग्नि, मित्र और वरुण के रूप में यह सूर्य भूलोक, द्युलोक और अंतरिक्ष को पूर्ण करते हुए उदय होता है॥ ७॥

आ न इडाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु ।
अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा ॥ ८ ॥

हे सुंदर अन्नों वाले, हमारे प्रशंसनीय यज्ञ में सबका हितार्थ सूर्यदेव आगमन करें। हे अजर देव! चाहे जैसा भी हो, आप संतुष्ट रहें और आगमन के समय हमारी सभी गौओं और अन्य पशुओं को बुद्धिपूर्वक संतुष्ट करें॥ ८॥

यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य ।
सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९ ॥

हे इन्द्र! हे सूर्य! आज जहां-कहीं भी तुम उदय कर रहे हो, उन सभी स्थानों को तुम्हारा आधीन हैं॥ ९॥

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥ १० ॥

विश्व के प्रकाशक हे सूर्य, जो देखते-देखते विश्व को अतिक्रमण करते हो, तुम्हीं इस चमकदार विश्व को प्रकाशित करते हो॥ १०॥

तत् सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोर्विततं सं जभार ।
यदेदयुक्त हरितः सधस्थादाद्रात्री वासस्तनुते सिमस्मै ॥ ११ ॥

सूर्य का देवत्व उनकी विशेषता है कि वे ईश्वर द्वारा सृष्ट जगत के मध्य में स्थित होते हैं, सभी ग्रहों को धारण करते हैं और जब वे आकाश से हरितवर्ण की किरणों से संयुक्त होते हैं, तब रात्रि सभी के लिए अन्धकार का आवरण फैला देती है॥ ११॥

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।
अनन्तमन्यद् रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥ १२ ॥

सूर्य द्युलोक के अंश में मित्र और वरुण के रूप में धारण करके सभी को देखता है। यह अनन्त शुक्ल-दीप्ति के साथ एक दूसरा अद्वैत रूप धारण करता है। यह कृष्णवर्ण के एक और द्वैत रूप है, जिसे इंद्रियाँ ग्रहण करती हैं॥ १२॥

बण्महाँ२ असि सूर्य बडादित्य महाँ२ असि ।
महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ२ असि ॥ १३ ॥

हे सूर्यरूप परमात्मन्! आप सत्य ही महान् हैं। आदित्य! आप सत्य ही महान् हैं। आप महान् और सद्रूप होने के कारण आपकी महिमा गायी जाती है। आप सत्य ही महान् हैं॥ १३॥

बट् सूर्य श्रवसा महाँ२ असि सत्रा देव महाँ२ असि ।
मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४ ॥

हे सूर्य! आप सत्य ही यश से महान् हैं। आप यज्ञ से महान् हैं, महिमा से महान् हैं। आप देवों के हितकारी एवं अग्रणी हैं और अदम्य व्यापक ज्योतिवाले हैं॥ १४॥

श्रयन्त इव सूर्यं विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ।
वसूनि जाते जनमान ओजसा प्रति भागं न दीधिम् ॥ १५ ॥

जिन सूर्य की किरणों का आश्रय होता है, वे किरणें इन्द्र की सम्पूर्ण वृष्टि-सम्पत्ति का भोजन करती हैं और फिर उनकी उत्पन्ना, अर्थात् वर्षण के समय यथाभाग उत्पन्न होती हैं। हम उन सूर्य को हृदय में धारण करते हैं॥ १५॥

अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निरहंसः पिपृता निरवद्यात् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६ ॥

हे देवताओं! आज सूर्य के उदय से हमारे पाप और दोषों को दूर करें और मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथ्वी, और स्वर्ग सभी इस वाणी को स्वीकार करें॥ १६॥

आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्य च ।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ १७ ॥

सभी को प्रेरित करने वाले सूर्यदेव, स्वर्णिम रथ में विराजमान होकर अन्धकारपूर्ण अन्तरिक्ष-पथ में विचरण करते हुए, देवताओं और मानवों को उनके कार्यों में संलग्न करते हुए, लोकों को देखते हुए आगे बढ़ रहे हैं॥ १७॥

 

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रोगघ्न उपनिषद – सौर सूक्त

ऋग्वेद-संहिता – प्रथम मंडल सूक्त ५० [ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता – सूर्य (११-१३ रोगघ्न उपनिषद)। छन्द – गायत्री, १०-१३ अनुष्टुप्

उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥१॥

ये ज्योतिर्मयी रश्मियाँ पूर्ण प्राणियों के ज्ञाता सूर्यदेव को और समस्त विश्व को दर्शन प्रदान करने के लिए विशेष रूप से प्रकाशित होती हैं॥१॥

अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः ।
सूराय विश्वचक्षसे ॥२॥

सबको प्रकाश देने वाले सूर्यदेव के उदय होते ही रात्रि के साथ तारा मण्डल ऐसे ही छिप जाते हैं, जैसे चोर छिप जाते हैं॥२॥

अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु ।
भ्राजन्तो अग्नयो यथा ॥३॥

प्रज्वलित हुई अग्नि की किरणों के समान, सूर्यदेव की प्रकाश रश्मियाँ सम्पूर्ण जीव-जगत को प्रकाशित करती हैं॥३॥

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥४॥

हे सूर्यदेव! आप साधकों के उद्धारक, संसार के एकमात्र दर्शनीय प्रकाशक हैं और आप ही विस्तृत अंतरिक्ष को सभी ओर से प्रकाशित करते हैं॥४॥

प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषान् ।
प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे ॥५॥

हे सूर्यदेव! आप मरुद्गणों, देवगणों, मनुष्यों और स्वर्गलोक के निवासियों के सामने नियमित रूप से उदित होते हैं, ताकि तीनों लोकों के वासियों को आपका दर्शन मिल सके॥५॥

येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु ।
त्वं वरुण पश्यसि ॥६॥

जिस दृष्टि में आप प्राणियों को पोषण और धारण करने वाले प्रकाश से इस लोक को प्रकाशित करते हैं, हम उस प्रकाश की स्तुति करते हैं॥६॥

वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहा मिमानो अक्तुभिः ।
पश्यञ्जन्मानि सूर्य ॥७॥

हे सूर्यदेव! आप दिन और रात में समय को विभाजित करके अन्तरिक्ष और द्युलोक में भ्रमण करते हैं, जिससे सभी प्राणियों को लाभ प्राप्त होता है॥७॥

सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य ।
शोचिष्केशं विचक्षण ॥८॥

हे सर्वदृष्टि सूर्यदेव! आप तेजस्वी ज्वालाओं से युक्त दिव्यता को धारण करते हुए सप्तवर्णी किरणों के रूप में अश्वों के रथ में सुशोभित होते हैं॥८॥

अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः ।
ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥९॥

हे सूर्यदेव! आप ज्ञान से सम्पन्न और पवित्रता को प्रदान करने वाले ऊधर्वगामी हैं। आप अपने सप्तवर्णी अश्वों (किरणों) से सुशोभित रथ में सुंदरता के साथ शोभायमान होते हैं॥९॥

उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम् ।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥१०॥

ज्योतिरूप सूर्यदेव को देखते हुए, हमें उत्कृष्टतम ज्योति को प्राप्त होना चाहिए, जो तमिस्रा से दूर स्थित है॥१०॥

उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम् ।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ॥११॥

हे मित्रों के मित्र सूर्यदेव! जब आप उदित होते हैं और आकाश में उठते हैं, तो हृदयरोग और शरीर की कांति के दुष्प्रभाव को मिटाने का कार्य आप प्रारंभ करें॥११॥

शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि ।
अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि दध्मसि ॥१२॥

हम अपने हरिमाण को शुकों, रोपणाकां और हरिद्रवों में स्थापित करते हैं, जो शरीर के क्षीण करने वाले रोगों को नष्ट करने में सहायक होते हैं॥१२॥

उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।
द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम् ॥१३॥

हे सूर्यदेव, अपने सम्पूर्ण तेजों से उदित होकर, हमारे सभी रोगों को नियंत्रित करें और हमें उन रोगों के बल पर कभी आने न दें॥१३॥

सूर्य सूक्तम के लाभ । Surya Suktam benefits in hindi

सूर्य सूक्तम ऋग्वेद में पाए जाने वाले भगवान सूर्य को समर्पित एक पवित्र स्तोत्र है। सूर्य सूक्तम का पाठ या जाप करने के कई लाभ माने जाते हैं:

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सूर्य सूक्तम के लाभ

Surya Suktam Benefits in hindi

  1. दिव्य ऊर्जा का प्रकटन: सूर्य सूक्तम भगवान सूर्य की दिव्य ऊर्जा का प्रकटन करने में सहायता करता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से मान्यता है कि मनुष्य सूर्य की पॉजिटिव और प्रकाशमयी ऊर्जा से जुड़ जाता है।
  2. आध्यात्मिक विकास: सूर्य सूक्तम का पाठ करने से आध्यात्मिक विकास में सुधार होता है और भगवान से गहरा संबंध बनता है। यह माना जाता है कि इस स्तोत्र का पाठ करने से आध्यात्मिक जागरूकता जाग्रत होती है और मानवीय संतुलन और समता की भावना को प्रोत्साहित किया जाता है।
  3. स्वास्थ्य और प्राणशक्ति: सूर्य सूक्तम सौर मंडल के साथ जुड़ा होता है और स्वास्थ्य, जीवन शक्ति और सम्पूर्ण कल्याण के संबंध में महत्वपूर्ण माना जाता है। सूर्य सूक्तम का पाठ करने से शारीरिक स्वास्थ्य और प्राणशक्ति में सुधार होता है, सामान्य कल्याण को बढ़ावा मिलता है।
  4. आशीर्वाद और संरक्षण: सूर्य सूक्तम के पाठ करने से भगवान सूर्य का आशीर्वाद प्राप्त करने और नकारात्मक प्रभावों से संरक्षण प्राप्त होता है। इसका पाठ भक्ति भाव से किया जाने पर भगवान सूर्य की कृपा और संरक्षण का आकर्षण होता है।
  5. मानसिक स्पष्टता और ध्यान: सूर्य सूक्तम का पाठ मन को शांति प्रदान करता है और मानसिक स्पष्टता, ध्यान और समर्पण की स्थिति को प्रोत्साहित करता है। यह एक प्रकार के ध्यान के रूप में अभ्यास किया जाता है ताकि आंतरिक शांति और शांति की स्थिति प्राप्त की जा सके।
  6. बाधाओं का निवारण: सूर्य सूक्तम का पाठ करने से बाधाओं का निवारण होता है और विभिन्न प्रयासों में सफलता प्राप्त होती है। कठिनाइयों को पार करने और लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इस स्तोत्र का पाठ करना शुभ माना जाता है।

यह ध्यान देने योग्य है कि सूर्य सूक्तम के असली लाभ व्यक्ति के लिए अलग-अलग हो सकते हैं, और इसके प्रभाव को निर्धारित करने में उनकी सच्चाई, विश्वास और नियमित अभ्यास का प्रभाव हो सकता है। हमेशा सुरक्षा, श्रद्धा और एक पवित्र हृदय के साथ इस तरह के अभ्यास का सामर्थ्य करना सुझावित है।

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Faqs

सूर्य सूक्त में कौन सा छंद प्रयुक्त होता है?

सूर्य सूक्त में छंद के रूप में ‘त्रिष्टुप’ छंद प्रयुक्त होता है। ऋषि कुत्स आङ्गिरस द्वारा सूर्य देवता की स्तुति त्रिष्टुप छंद में की गई है।

सूर्य उपासना कैसे की जाती है?

सुबह के समय सभी कार्यों से विरत होकर स्नान करें। फिर, उगते हुए सूर्य के दर्शन करके जल अर्पण करने के लिए एक तांबे के लोटे में जल लें। इसमें सिंदूर, अक्षत, और लाल फूल डालें। अब पूर्व दिशा की ओर मुख करके दोनों हाथों को ऊपर करें और धीरे-धीरे अर्घ्य अर्पित करें। आप इस जल को गमले या किसी अन्य बर्तन में रख सकते हैं, जिससे यह पैरों के नीचे न गिरे। अर्घ्य देने के समय मंत्र का जाप करें और ध्यान रखें कि अंगूठा और तर्जनी आपस में मिले नहीं और पानी को कोई उंगली छूने न पाए।

What are the benefits of Surya sukta?

सूर्य सूक्तम के लाभ लंबी उम्र, बीमारियों का इलाज, और मानसिक सुख, त्वचा समस्याओं का इलाज, दृष्टि में सुधार

What is the meaning of Aghamarshana Suktam?

अघमर्षण सूक्तम एक वैदिक मंत्र है जो हमारे शरीर और मन को शुद्ध करता है, नकारात्मकता और अनचाहे प्रभावों को हटाता है, स्पष्टता देता है और हमें शुद्ध बनाकर सर्वोच्च सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिए तैयार करता है।


 

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