Pavitrikaran Mantra: स्वयं को पवित्र करें पवत्रीकरण मंत्र के साथ

पवित्रीकरण मंत्र (Pavitrikaran Mantra) हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक प्रक्रिया है जो हमें आत्मिक और आध्यात्मिक स्तर पर शुद्धि और पवित्रता की ओर ले जाती है। यह मंत्र आध्यात्मिक साधना के दौरान प्रयोग किया जाता है और हर पूजा, हवन या धार्मिक कार्य के पूर्व उच्चारित किया जाता है।

पवित्रीकरण मंत्र हिंदी में । Pavitrikaran Mantra in Hindi

मंत्र

“ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्यात् भ्यन्तर: शुचि: ।।

इस मंत्र का अर्थ है कि “जो भी अपवित्र हो, वह पवित्र हो जाता है; जो स्मरण करता है पुण्डरीक नेत्र वाले परमेश्वर को, वह बाहरी और अंतरंग दोनों ही शुद्ध हो जाता है।”

पवित्रीकरण मंत्र का उपयोग:

  • इस मंत्र का जाप करने से पूजा, हवन या किसी भी धार्मिक कार्य के लिए शरीर और मन दोनों ही पवित्र हो जाते हैं।
  • इस मंत्र का जाप करने से अंतरंग शुद्धि होती है, जिससे आत्मा की पवित्रता में वृद्धि होती है।
  • यह मंत्र बुरे कर्मों की शुद्धि के लिए भी प्रयोग किया जाता है और व्यक्ति को धार्मिक साधना के लिए सज्ज करता है।

इस मंत्र का उच्चारण कैसे करें:

  • सबसे पहले, अपने दाहिने हाथ में शुद्ध जल लें। यदि गंगाजल उपलब्ध है, तो उसे प्राथमिकता दें।
  • मंत्र को सही उच्चारण के साथ जप करें और फिर हाथ के जल को अपने ऊपर छीटें।
  • इस प्रक्रिया को नियमित रूप से करके आप अपने आत्मा को पवित्र और शुद्ध बनाए रख सकते हैं।

पवित्रीकरण मंत्र के उच्चारण से हम न केवल अपने आप को पवित्र और शुद्ध बनाते हैं, बल्कि हमें आत्मा के साथ एकात्मता और धार्मिकता की भावना भी प्राप्त होती है। इसीलिए, यह मंत्र हमारे जीवन में धार्मिक और आध्यात्मिक संवेदना को संदेशित करने में सहायक होता है।

FaQs

पुंडरीकाक्ष नाम से किस भगवान को संबोधित किया जाता है?

पुंडरीकाक्ष नाम से भगवान विष्णु को संबोधित किया जाता है।

पवत्रीकरण मंत्र कैसे काम करता है?

जब किसी व्यक्ति पवित्रीकरण मंत्र के साथ उचित विधि और भावना से उच्चारण किया जाता है, तो इसमें शुद्ध और प्रेरित ऊर्जा का संचार होता है। यह ऊर्जा उस व्यक्ति को नकारात्मकता, दोष, अशुभता और अधर्म से मुक्त करने में सहायक होती है।

पूजा में पवित्र होने का मंत्र क्या है?

“ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्यात् भ्यन्तर: शुचि: ।।

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