16 Sanskar: हिंदू धर्म के पवित्र रीतियों की पूरी जानकारी

16 Sanskar: 16 संस्कार हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान और परंपराएं हैं, जिन्हें व्यक्ति के जीवन के विभिन्न चरणों में किया जाता है। ये संस्कार जीवन को शुद्ध, पवित्र, और समाज के योग्य बनाने के उद्देश्य से निर्धारित किए गए हैं। प्रत्येक संस्कार का अपना विशेष महत्व है, जो शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक माना जाता है।

16 संस्कारों के नाम | 16 Sanskar Ke Naam

संस्कारों के क्रम में विभिन्न धर्मग्रंथों में थोड़ा-बहुत अंतर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारंभ, केशांत, समावर्तन, विवाह और अन्त्येष्टि ही मान्य हैं।

संस्कारों के प्रकार:

  • अन्तर्गर्भ संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन
  • बहिर्गर्भ संस्कार: जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ
  • दोष मार्जन संस्कार: गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कार
  • गुणाधान संस्कार: विद्यारंभ के बाद के संस्कार
  1. गर्भाधान संस्कार
  2. पुंसवन संस्कार
  3. सीमन्तोन्नयन संस्कार
  4. जातकर्म संस्कार
  5. नामकरण संस्कार
  6. निष्क्रमण संस्कार
  7. अन्नप्राशन संस्कार
  8. चूडाकर्म या मुंडन संस्कार
  9. कर्णभेद या कर्णवेध संस्कार
  10. विद्यारंभ संस्कार
  11. उपनयन संस्कार या यज्ञोपवीत
  12. वेदारंभ संस्कार
  13. केशांत या गोदाना संस्कार
  14. समावर्तन संस्कार
  15. विवाह संस्कार
  16. अन्त्येष्टि संस्कार

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16 Sanskar हिंदू धर्म के पवित्र रीतियों की पूरी जानकारी
16 Sanskar

16 संस्कार का वर्णन

16 Sanskar - गर्भाधान संस्कार
गर्भाधान संस्कार

1. गर्भाधान संस्कार

गर्भाधान संस्कार हिंदू धर्म का पहला और अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार है। यह संस्कार तब किया जाता है जब एक दंपति संतान प्राप्ति की योजना बनाते हैं। इस संस्कार के माध्यम से दंपति भगवान से प्रार्थना करते हैं कि उनके घर में एक पुण्यात्मा का आगमन हो। गर्भधारण के लिए शुभ मुहूर्त का चयन किया जाता है, जिससे भविष्य की संतान शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और गुणवान हो। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार, गर्भधारण के समय ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति भी महत्वपूर्ण होती है, जिससे संतान की बुद्धिमत्ता, चरित्र और जीवन की दिशा निर्धारित होती है। इस संस्कार के माध्यम से परिवार में नई पीढ़ी का स्वागत बड़े ही पवित्र और धार्मिक तरीके से किया जाता है, ताकि वह कुल की मर्यादा और गौरव को बनाए रख सके।

16 Sanskar - पुंसवन संस्कार
पुंसवन संस्कार

2. पुंसवन संस्कार

पुंसवन संस्कार गर्भधारण के बाद गर्भस्थ शिशु के कल्याण और विकास के लिए किया जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य शिशु के स्वास्थ्य, सुंदरता और गुणों को सुनिश्चित करना होता है। यह संस्कार गर्भ के पहले तीन महीनों में किया जाता है, जब गर्भ की स्थिति स्थिर हो जाती है। इस समय, यज्ञ और विशेष मंत्रों के साथ भगवान से प्रार्थना की जाती है कि गर्भ में पल रहे शिशु का सही विकास हो और वह पूर्ण स्वास्थ्य के साथ जन्म ले। पुंसवन संस्कार के दौरान विशेष प्रकार की औषधियों का भी प्रयोग किया जाता है, जिनका उद्देश्य शिशु को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ बनाना होता है। इस संस्कार में परिवार के सभी सदस्य और गुरुजन शामिल होते हैं और वेदों के मंत्रों के साथ यज्ञ किया जाता है, ताकि गर्भस्थ शिशु के जीवन में अच्छे गुणों का विकास हो।

16 Sanskar - सीमन्तोन्नयन संस्कार
सीमन्तोन्नयन संस्कार

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार

सीमन्तोन्नयन संस्कार गर्भ के चौथे, छठे और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय तक गर्भस्थ शिशु का मानसिक और शारीरिक विकास काफी हद तक हो चुका होता है, और वह बाहरी दुनिया से सीखने की क्षमता भी प्राप्त करने लगता है। इस संस्कार का उद्देश्य शिशु के अंदर अच्छे गुण, स्वभाव और कर्मों का विकास करना होता है। इसके लिए गर्भवती महिला विशेष आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार का पालन करती है। संस्कार के दौरान यज्ञ और मंत्रोच्चारण किए जाते हैं, जिससे शिशु के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और संस्कारों का संचार हो। इस संस्कार में खिचड़ी की आहुति दी जाती है, जो शिशु के भविष्य के लिए शुभ मानी जाती है। सीमन्तोन्नयन संस्कार के माध्यम से माता-पिता अपने शिशु के लिए उत्तम गुणों और जीवन मूल्यों की कामना करते हैं।

16 Sanskar - जातकर्म संस्कार
जातकर्म संस्कार

4. जातकर्म संस्कार

जातकर्म संस्कार शिशु के जन्म के तुरंत बाद किया जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य नवजात शिशु को जीवन के पहले संस्कार के रूप में शुभ और पवित्रता प्रदान करना है। जैसे ही शिशु का जन्म होता है, उसे शहद और घी का मिश्रण चटाया जाता है, जो उसके जीवन में मिठास और शुभता का प्रतीक है। संस्कार के दौरान वेद मंत्रों का उच्चारण किया जाता है, जिससे शिशु के जीवन की शुरुआत सकारात्मक और पवित्र हो। इस संस्कार के माध्यम से शिशु के जीवन से गर्भजन्य दोषों को दूर करने का प्रयास किया जाता है। यह संस्कार शिशु के जीवन में पहले कदम के रूप में महत्वपूर्ण है और यह सुनिश्चित करता है कि उसका जीवन धर्म, शुद्धता और आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हो।

5. नामकरण संस्कार

नामकरण संस्कार शिशु के जन्म के 11वें, 100वें या 101वें दिन किया जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य शिशु को एक ऐसा नाम देना है, जो उसके व्यक्तित्व और भविष्य को संवारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए। नामकरण संस्कार के दौरान परिवार के सदस्य और गुरुजन मिलकर यज्ञ करते हैं और ज्योतिष आधार पर शिशु का नाम निर्धारित करते हैं। नामकरण के समय शिशु को शहद चटाकर सूर्य के दर्शन कराए जाते हैं, जिससे उसकी जीवन ऊर्जा और स्वास्थ्य में वृद्धि होती है। शिशु का नामकरण करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि नाम ऐसा हो, जो पवित्रता, धर्म और संस्कारों का प्रतीक हो। नाम का चयन इस प्रकार किया जाता है कि शिशु के जीवन में उस नाम के गुणों का विकास हो और वह बड़े होकर समाज में एक आदर्श व्यक्ति बने।

16 Sanskar - निष्क्रमण संस्कार
निष्क्रमण संस्कार

6. निष्क्रमण संस्कार

निष्क्रमण संस्कार शिशु के जीवन का एक महत्वपूर्ण संस्कार है, जो उसके जन्म के चौथे महीने में किया जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य शिशु को पहली बार घर से बाहर की दुनिया में लाना और उसे प्रकृति के पंचभूत तत्वों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – से परिचित कराना है। शिशु का शरीर इन पंचभूतों से बना होता है, और इसलिए यह संस्कार उन्हें सम्मानित करने और शिशु के कल्याण की प्रार्थना करने के लिए किया जाता है। इस संस्कार में पिता शिशु को पहली बार घर से बाहर खुली हवा में लेकर जाते हैं, जिससे शिशु को प्राकृतिक वातावरण का अनुभव होता है। इस समय वेद मंत्रों का उच्चारण किया जाता है, जिससे शिशु के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और स्वास्थ्य की वृद्धि होती है। निष्क्रमण संस्कार शिशु के जीवन में एक नए चरण की शुरुआत का प्रतीक है, जिसमें वह धीरे-धीरे बाहरी दुनिया के संपर्क में आता है और अपनी नई यात्रा शुरू करता है।


16 Sanskar - अन्नप्राशन संस्कार
अन्नप्राशन संस्कार

7. अन्नप्राशन संस्कार

अन्नप्राशन संस्कार शिशु के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ है, जब उसे पहली बार अन्न का सेवन कराया जाता है। यह संस्कार आमतौर पर शिशु के 6-7 महीने की आयु में किया जाता है, जब उसके दांत निकलने लगते हैं और वह अन्न को पचाने में सक्षम होता है। संस्कार के दौरान शिशु को सोने या चांदी के चम्मच से खीर चटाई जाती है, जो उसकी पाचन शक्ति को बढ़ाने और उसे स्वस्थ रखने के लिए की जाती है। यह संस्कार शिशु के शरीर को शुद्ध करने और उसे पोषण देने का प्रतीक है। अन्नप्राशन संस्कार के बाद, शिशु को नियमित रूप से अन्न देने की शुरुआत होती है, जो उसके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक होता है। इस संस्कार के माध्यम से शिशु के जीवन में पोषण और स्वास्थ्य की नींव रखी जाती है, जो उसके भविष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

16 Sanskar - चूडाकर्म या मुंडन संस्कार
चूडाकर्म या मुंडन संस्कार

8. चूडाकर्म या मुंडन संस्कार

चूडाकर्म या मुंडन संस्कार शिशु के जीवन का एक महत्वपूर्ण संस्कार है, जिसमें उसके बाल उतारे जाते हैं। यह संस्कार शिशु के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष में किया जाता है। संस्कार के दौरान शिशु के सिर के बालों को पूर्ण रूप से हटाया जाता है, जिसे वपन क्रिया भी कहा जाता है। इस प्रक्रिया का उद्देश्य शिशु के सिर को मजबूत बनाना और उसकी बुद्धि को तेज करना होता है। मुंडन संस्कार के समय यज्ञ और वेद मंत्रों का उच्चारण किया जाता है, जिससे शिशु के जीवन में शुभता और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। इस संस्कार का महत्व इस बात में भी है कि यह शिशु के जीवन के पहले चरण का अंत और एक नए चरण की शुरुआत का प्रतीक है। मुंडन संस्कार के माध्यम से शिशु के जीवन में नए और अच्छे विचारों का बीजारोपण किया जाता है, जिससे उसका भविष्य उज्जवल और सुखमय हो।

16 Sanskar - कर्णभेद या कर्णवेध संस्कार
कर्णभेद या कर्णवेध संस्कार

9. कर्णभेद या कर्णवेध संस्कार

कर्णभेद संस्कार शिशु के कान छेदने की प्रक्रिया है, जो जन्म के छह महीने बाद से लेकर पांच वर्ष की आयु के बीच किया जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य न केवल आभूषण पहनने के लिए कान छेदना है, बल्कि इससे जुड़े स्वास्थ्य लाभ भी प्राप्त करना है। कर्णभेद से मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त प्रवाह को सुधारने में मदद मिलती है, जिससे शिशु का मानसिक और शारीरिक विकास बेहतर होता है। यह प्रक्रिया एक्यूपंक्चर के समान प्रभाव डालती है, जो कान की बीमारियों से बचाव में सहायक होती है। कर्णभेद संस्कार के समय वेद मंत्रों का उच्चारण और यज्ञ किया जाता है, जिससे शिशु के जीवन में शुभता और सकारात्मकता का संचार होता है। यह संस्कार शिशु के स्वास्थ्य, सौंदर्य और सांस्कृतिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।

16 Sanskar - उपनयन संस्कार
उपनयन संस्कार

10. विद्यारंभ संस्कार

विद्यारंभ संस्कार बालक के शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित होने का प्रतीक है। इस संस्कार को लेकर हमारे अतीत में मतभिन्नता रही है कि यह किस समय करना उपयुक्त है। कुछ लोग इसे उपनयन संस्कार के बाद उपयुक्त मानते हैं, लेकिन मेरी राय में अन्नप्राशन के बाद ही विद्यारंभ संस्कार करना उचित है, क्योंकि अन्नप्राशन के बाद शिशु बोलना शुरू करता है और यह समय शिक्षा की शुरुआत के लिए सबसे उपयुक्त माना जा सकता है।

विद्यारंभ का मुख्य उद्देश्य बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक चरणों से परिचित कराना है। प्राचीन काल में, जब गुरुकुल की परम्परा थी, तो बालक को वेदाध्ययन के लिए गुरुकुल भेजने से पहले घर में ही अक्षर बोध कराया जाता था। माता-पिता और गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथाएं आदि सिखा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में अध्ययन के दौरान उसे कठिनाई न हो।

हमारे शास्त्र विद्यानुरागी हैं, और उनमें कहा गया है कि “सा विद्या या विमुक्तये,” अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या या ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। इसलिए, विद्यारंभ संस्कार को शुभ मुहूर्त में ही करना चाहिए ताकि बालक के जीवन में ज्ञान की यह यात्रा सफल और शुभ हो। विद्यारंभ संस्कार बालक के जीवन में शिक्षा और ज्ञान के प्रति प्रेम और सम्मान पैदा करने का पहला कदम है, जिससे वह भविष्य में एक सुसंस्कृत और ज्ञानी व्यक्ति बन सके।

11. उपनयन संस्कार या यज्ञोपवीत

उपनयन संस्कार भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संस्कार है, जिसमें यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण कराया जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य बालक को इस बात का संकेत देना है कि अब वह पढ़ने के योग्य हो गया है और उसे आचार्य के पास विद्याध्ययन के लिए तैयार होना चाहिए। यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं, जो तीन ऋणों—ऋषिऋण, पितृऋण, और देवऋण—के प्रतीक होते हैं। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेदविद्या का अध्ययन करके बालक ऋषिऋण चुकाता है, धर्मपूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर सन्तानोत्पत्ति से पितृऋण चुकाता है, और गृहस्थ का त्याग कर देश सेवा के लिए अपने को तैयार करके देवऋण चुकाता है। वैदिक संस्कृति में इन ऋणों को चुकाने के लिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, और वानप्रस्थ आश्रम की योजना बनाई गई है।

उपनयन संस्कार को बालक-बालिका के पढ़ने योग्य होने पर, अर्थात् पांचवे से सातवे वर्ष तक, करना उचित माना गया है। इस संस्कार से पूर्व बालक को आर्थिक सुविधानुसार तीन दिन तक विशेष आहार, जैसे दुग्धाहार, श्रीखंडाहार, दलियाहार, या खिचड़ी-आहार में से किसी एक का सेवन कराना चाहिए।

इस संस्कार में आचार्य की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। आचार्य का कर्तव्य होता है कि वह बच्चे के कल्याण की भावना से यज्ञोपवीत कराए और उसे श्रेष्ठ बनाने की दिशा में प्रेरित करे। आचार्य बालक के जीवन में विभिन्न देव भावों को भरने का संकल्प लेते हुए यज्ञोपवीत संस्कार करता है। यज्ञोपवीत की एक महान शर्त यह है कि आचार्य और बालक दोनों सम-हृदय, सम-चित्त, एकाग्र-मन, और सम-अर्थ-सेवी हों। इस सब में आचार्य को परिष्कृत होना चाहिए और शिष्य को शिष्यत्व ग्रहण करने के लिए तैयार होना चाहिए। आचार्य का कर्तव्य है कि वह बालक के सहज बचपन का परिष्कार करे और उसे विकसित करने के लिए अपने बचपन की अवस्थाओं का ध्यान रखे।

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इस संस्कार के द्वारा आचार्य और बालक शिक्षा देने और लेने हेतु एक दूसरे का सम-वरण करते हैं। यह प्रक्रिया बिल्कुल उसी प्रकार होती है जैसे मां गर्भ में अपने शिशु का और शिशु अपनी मां का वरण करता है। इस प्रकार, उपनयन संस्कार बालक को जीवन के उच्च उद्देश्यों की ओर अग्रसर करने वाला संस्कार है, जिसमें आचार्य और शिष्य का संबंध गहरे अर्थों में स्थापित होता है।

16 Sanskar - वेदारंभ संस्कार
वेदारंभ संस्कार

12. वेदारंभ संस्कार

वेदारंभ संस्कार हिंदू धर्म में उस समय का प्रतीक है जब विद्यार्थी अपने गुरु से वेदों की शिक्षा लेना शुरू करता है। यह संस्कार उपनयन संस्कार के तुरंत बाद किया जाता है, जिसमें गुरु बच्चे को वेदों के मूल मंत्रों और शास्त्रों की शिक्षा देते हैं। संस्कार के दौरान यज्ञ और वेद मंत्रों का उच्चारण किया जाता है, जिससे विद्यार्थी के मन में वेदों के प्रति श्रद्धा और सम्मान उत्पन्न होता है। इस संस्कार के माध्यम से बच्चे को धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जाती है, जिससे वह एक अच्छे और जिम्मेदार नागरिक बन सके। वेदारंभ संस्कार बच्चे के जीवन में ज्ञान और शिक्षा के महत्व को स्थापित करता है, जिससे उसका मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक विकास होता है। यह संस्कार बच्चे के जीवन की दिशा निर्धारित करता है और उसे धर्म, संस्कार और ज्ञान के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करता है।

13. केशांत या गोदाना संस्कार

केशांत या गोदाना संस्कार हिंदू धर्म में उस समय का प्रतीक है जब एक बालक किशोरावस्था में प्रवेश करता है। इस संस्कार के दौरान, बालक के सिर के बालों को फिर से मुंडाया जाता है, जो उसकी बाल्यावस्था के अंत और युवावस्था की शुरुआत का प्रतीक है। संस्कार के समय यज्ञ और वेद मंत्रों का उच्चारण किया जाता है, जिससे बालक के जीवन में शुभता और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। केशांत संस्कार के माध्यम से बालक को यह सिखाया जाता है कि अब वह एक जिम्मेदार और अनुशासित जीवन जीने के लिए तैयार है। इस संस्कार के बाद, बालक को समाज और परिवार के प्रति उसके कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का बोध कराया जाता है। यह संस्कार बालक के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ है, जो उसे युवावस्था की चुनौतियों का सामना करने के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार करता है।

16 Sanskar - समावर्तन संस्कार
समावर्तन संस्कार

14. समावर्तन संस्कार

समावर्तन संस्कार वह समय होता है जब विद्यार्थी अपने गुरु से शिक्षा पूर्ण करने के बाद घर लौटता है। इस संस्कार का उद्देश्य विद्यार्थी को गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिए तैयार करना है। समावर्तन संस्कार के दौरान विद्यार्थी को यज्ञ और मंत्रोच्चारण के माध्यम से दीक्षा दी जाती है, जिससे वह अपने जीवन के नए चरण की शुरुआत कर सके। संस्कार के समय विद्यार्थी को स्नान कराया जाता है, जो उसके जीवन की शुद्धता और नई शुरुआत का प्रतीक है। इस संस्कार के बाद, विद्यार्थी समाज में एक जिम्मेदार और शिक्षित व्यक्ति के रूप में प्रवेश करता है, जो धर्म, संस्कार और नैतिकता के सिद्धांतों का पालन करता है। समावर्तन संस्कार विद्यार्थी के जीवन में शिक्षा और ज्ञान के महत्व को स्थापित करता है, जिससे वह एक सफल और संतुलित जीवन जी सके।

16 Sanskar - विवाह संस्कार
विवाह संस्कार

15. विवाह संस्कार

विवाह संस्कार हिंदू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र संस्कारों में से एक है, जिसमें दो व्यक्तियों का जीवनसाथी के रूप में मिलन होता है। यह संस्कार दो परिवारों के बीच एक पवित्र बंधन को स्थापित करता है, जिसमें वर और वधू एक-दूसरे के साथ जीवनभर के लिए संकल्प लेते हैं। विवाह संस्कार के दौरान यज्ञ, मंत्रोच्चारण और अग्नि के सात फेरे लिए जाते हैं, जो दंपति के जीवन में धर्म, प्रेम, सम्मान और जिम्मेदारी को स्थापित करते हैं। संस्कार के समय वर और वधू को उनके कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का बोध कराया जाता है, जिससे वे एक सफल और सुखमय दांपत्य जीवन जी सकें। विवाह संस्कार केवल शारीरिक मिलन नहीं है, बल्कि यह दो आत्माओं का आध्यात्मिक और मानसिक मिलन है, जो समाज और परिवार की मर्यादा और गरिमा को बनाए रखने में सहायक होता है। यह संस्कार जीवन की एक नई शुरुआत का प्रतीक है, जिसमें वर और वधू एक साथ जीवन की सभी चुनौतियों का सामना करते हैं और एक दूसरे के साथ हर सुख-दुख में साथ रहते हैं।

16 Sanskar - अन्त्येष्टि संस्कार
अन्त्येष्टि संस्कार

16. अन्त्येष्टि संस्कार

अन्त्येष्टि संस्कार, जिसे नरमेध, पुरुषमेध या पुरुषयाग भी कहा जाता है, मृत्यु के बाद व्यक्ति के शरीर पर किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण संस्कार है। विभिन्न संस्कृतियों में अंतिम संस्कार की कई विधियाँ प्रचलित हैं, लेकिन वैदिक पद्धति से किया जाने वाला शवदाह सबसे श्रेष्ठ माना गया है। विश्वभर में लोग मृत्यु के बाद शरीर को पाँच तत्वों—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश—में से किसी एक को समर्पित करते हैं। जो लोग मृत शरीर को दफनाते हैं, वे पृथ्वी को प्रदूषित करते हैं; जो जल में प्रवाहित करते हैं, वे जल को; और जो शव को खुला छोड़ देते हैं, वे वायु को प्रदूषित करते हैं। इसके विपरीत, वैदिक पद्धति से शवदाह के अनेक लाभ हैं।

शवदाह में भूमि का उपयोग बहुत कम होता है, जिससे कब्रिस्तानों के कारण घिरी हुई भूमि को कृषि या अन्य निर्माण कार्यों में उपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा, पर्याप्त मात्रा में घृत और अन्य सामग्री के प्रयोग से वायु प्रदूषण का निवारण होता है, जबकि दफनाने से वायु और भूमि दोनों प्रदूषित हो जाती हैं। दफनाए गए शवों के साथ कभी-कभी जानवर छेड़छाड़ करते हैं, जिससे वे स्वयं रोगग्रस्त हो सकते हैं और मनुष्यों में बीमारियां फैलाने का कारण बन सकते हैं। वहीं, कुछ स्थानों पर कब्रों को दरगाह में बदलकर भक्ति और चढ़ावे के माध्यम से आर्थिक लाभ उठाने का प्रयास किया जाता है, जिससे अंधविश्वास और भोली-भाली जनता का शोषण होता है।

इसलिए, वैदिक अन्त्येष्टि संस्कार का मुख्य उद्देश्य मृत शरीर के पंचमहाभूतों को जल्दी से जल्दी सूक्ष्म करके उनके मूल रूप में पहुंचाना है। अग्नि द्वारा दाह कर्म एक ऐसा माध्यम है, जिससे मृतदेह के सभी तत्व शीघ्र ही अपने मूल रूप में लौट आते हैं, जिससे पर्यावरण की रक्षा होती है और आध्यात्मिक दृष्टि से यह विधि भी उचित मानी जाती है।

16 संस्कारों के नाम : सनातन धर्म के 16 संस्कार

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