भारतीय संस्कृति में साष्टांग दंडवत प्रणाम का विशेष महत्व है। यह एक ऐसी अभिवादन की विधि है जिसमें पूर्ण समर्पण और श्रद्धा का भाव निहित होता है। इस ब्लॉग में हम साष्टांग दंडवत प्रणाम के मंत्र, अर्थ, पर्यायवाची, विधि, संधि विच्छेद और इसके आध्यात्मिक महत्व को विस्तार से जानेंगे।
साष्टांग प्रणाम मंत्र । साष्टांग दंडवत प्रणाम मंत्र
साष्टांग प्रणाम का वर्णन करते हुए शास्त्रों में कहा गया है:
दोर्भ्यां पादाभ्यां जानुभ्यामुरसा शिरसा दृशा।
मनसा वचसा चेति प्रणामोsष्टांग ईरित:।।
इस श्लोक का अर्थ है:
“हाथों से, चरणों से, घुटनों से, वक्षःस्थल से, सिर से, नेत्रों से, मन से और वाणी से – इन आठ अंगों से किया गया प्रणाम साष्टांग प्रणाम कहलाता है।”
साष्टांग प्रणाम भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण और पवित्र अभिवादन है, जो पूर्ण समर्पण और श्रद्धा का प्रतीक है। इसमें व्यक्ति अपने शरीर के आठ अंगों का उपयोग करके अभिवादन करता है, जिससे वह अपने श्रद्धेय के प्रति अपनी पूर्ण श्रद्धा और विनम्रता प्रकट करता है।
साष्टांग दंडवत प्रणाम का अर्थ
साष्टांग प्रणाम संस्कृत शब्द है जिसमें “स” का अर्थ है ‘सहित’ और “अष्टांग” का अर्थ है ‘आठ अंग’। इस प्रकार साष्टांग प्रणाम का अर्थ हुआ ‘आठ अंगों सहित प्रणाम’। इसमें व्यक्ति अपने शरीर के आठ अंगों (हाथों से, चरणों से, घुटनों से, वक्षःस्थल से, सिर से, नेत्रों से, मन से और वाणी ) को भूमि पर स्पर्श कर अभिवादन करता है।
साष्टांग दंडवत का पर्यायवाची
साष्टांग दंडवत प्रणाम के कई पर्यायवाची शब्द हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:
- साष्टांग नमस्कार
- साष्टांग वंदन
- दंडवत प्रणाम
- पूर्णांग प्रणाम
साष्टांग प्रणाम का संधि विच्छेद
साष्टांग शब्द का संधि विच्छेद इस प्रकार है:
- स + अष्टांग = साष्टांग
यहाँ ‘स’ का अर्थ है ‘सहित’ और ‘अष्टांग’ का अर्थ है ‘आठ अंग’।
साष्टांग दंडवत प्रणाम क्यों किया जाता है?
भारतीय संस्कृति में साष्टांग दंडवत प्रणाम एक महत्वपूर्ण परंपरा है, जो श्रद्धा, समर्पण और विनम्रता को प्रदर्शित करती है। इस अभिवादन की विधि का गहरा आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व है। आइए, हम साष्टांग दंडवत प्रणाम के महत्व और इसे करने के कारणों को विस्तार से समझें।
साष्टांग दंडवत प्रणाम का महत्व और कारण
1. पूर्ण समर्पण और विनम्रता का प्रतीक
साष्टांग दंडवत प्रणाम में व्यक्ति अपने शरीर के आठ अंगों (सिर, दोनों हाथ, दोनों पैर, घुटने और छाती) को भूमि पर स्पर्श कर अभिवादन करता है। यह मुद्रा पूर्ण समर्पण और विनम्रता का प्रतीक है, जिसमें व्यक्ति अपने अहंकार को त्यागकर श्रद्धेय के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करता है।
2. आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार
इस मुद्रा में शरीर के विभिन्न अंगों का भूमि से स्पर्श होता है, जिससे सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। यह ऊर्जा न केवल व्यक्ति को शारीरिक रूप से, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक रूप से भी लाभ पहुंचाती है। साष्टांग प्रणाम करने से व्यक्ति की आध्यात्मिक ऊर्जा में वृद्धि होती है और वह अपने आत्मिक विकास की ओर अग्रसर होता है।
3. गुरु और शिष्य के संबंध को मजबूत करना
गुरु-शिष्य परंपरा में साष्टांग प्रणाम का विशेष महत्व है। जब शिष्य अपने गुरु के सामने साष्टांग दंडवत प्रणाम करता है, तो गुरु का आशीर्वाद और ज्ञान शिष्य को प्राप्त होता है। यह मुद्रा गुरु के प्रति श्रद्धा और समर्पण को प्रकट करती है और गुरु-शिष्य के संबंध को और भी मजबूत बनाती है।
4. मन की शांति और संतुलन
साष्टांग दंडवत प्रणाम करने से व्यक्ति के मन को शांति और संतुलन प्राप्त होता है। यह मुद्रा ध्यान और एकाग्रता को बढ़ाती है, जिससे व्यक्ति अपने मानसिक तनाव और चिंताओं से मुक्त होकर आत्मिक शांति का अनुभव करता है।
5. कर्म और ज्ञानेंद्रियों का समर्पण
इस प्रणाम में व्यक्ति अपनी सभी इंद्रियों (पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँचों कर्मेंद्रियाँ) को समर्पित कर देता है। यह समर्पण भावना व्यक्ति को अपने श्रद्धेय के प्रति पूर्णतः समर्पित और विनम्र बनाती है। यह भावना आत्म-शुद्धि और आत्म-विकास के लिए आवश्यक है।
6. शरीर के मर्म स्थानों का स्पर्श
साष्टांग प्रणाम में शरीर के छ: मर्म स्थान (महामर्म) भूमि से स्पर्श होते हैं, जिन्हें वास्तुशास्त्र में “षण्महांति” या “छ:महामर्म” कहा जाता है। इन स्थानों का भूमि से स्पर्श होने से व्यक्ति के शरीर में ऊर्जा का संतुलन बनता है और विभिन्न रोगों से मुक्ति मिलती है।
साष्टांग प्रणाम कैसे किया जाता है
साष्टांग प्रणाम करने की विधि निम्नलिखित है:
- सबसे पहले, जमीन पर दंडवत मुद्रा में लेट जाएं।
- अपने दोनों हाथों को सामने की ओर बढ़ाएं और हथेलियों को भूमि पर रखें।
- अपने दोनों पैरों को पीछे की ओर सीधा रखें।
- सिर, छाती, हाथ, घुटने और पैर के अंगूठे को भूमि पर स्पर्श कराएं।
- इस मुद्रा में कुछ समय तक रुकें और अपने श्रद्धेय को समर्पित भाव से प्रणाम करें।
- धीरे-धीरे उठें और सामान्य अवस्था में आ जाएं।
स्त्रियों को दंडवत प्रणाम क्यों नहीं करना चाहिए?
हमारे सनातन धर्म में ईश्वर की पूजा और प्रणाम करने के लिए विभिन्न विधियाँ बनाई गई हैं, जिनमें दंडवत प्रणाम को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। हालांकि, शास्त्रों में स्त्रियों को दंडवत प्रणाम करने का निषेध किया गया है। ऐसा क्यों है, इस सवाल का समाधान हमें ‘धर्मसिन्धु’ नामक ग्रंथ में मिलता है।
धर्मसिन्धु ग्रंथ में वर्णित:
“ब्राह्मणस्य गुदं शंखं शालिग्रामं च पुस्तकम्।
वसुन्धरा न सहते कामिनी कुच मर्दनं।।”
इस पंक्ति का अर्थ है:
ब्राह्मणों का पृष्ठभाग, शंख, शालिग्राम, धर्मग्रंथ (पुस्तक) और स्त्रियों का वक्षस्थल (स्तन) यदि सीधे भूमि (बिना आसन) का स्पर्श करते हैं, तो पृथ्वी इस भार को सहन नहीं कर सकती। इस असहनीय भार को सहन करने के कारण वह इस भार को डालने वाले से उसकी श्री (अष्ट-लक्ष्मियों) का हरण कर लेती है।
ब्राह्मणों का पृष्ठभाग, शंख, शालिग्राम, धर्मग्रंथ (पुस्तक) और स्त्रियों के वक्षस्थल को पृथ्वी पर सीधे स्पर्श कराने वाले की अष्ट-लक्ष्मियों का क्षय होने लगता है। अत: शास्त्र के इस निर्देशानुसार स्त्रियों को दंडवत प्रणाम कभी नहीं करना चाहिए।
स्त्रियों के लिए उचित प्रणाम विधि:
स्त्रियों को दंडवत प्रणाम के स्थान पर घुटनों के बल बैठकर अपना मस्तक भूमि से लगाकर प्रणाम करना चाहिए। ब्राह्मणों, शंख, शालिग्राम भगवान और धर्मग्रंथ (पुस्तक) को सदैव उनके यथोचित आसन पर ही विराजमान कराना चाहिए।
निष्कर्ष
साष्टांग दंडवत प्रणाम भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह पूर्ण श्रद्धा, समर्पण और विनम्रता का प्रतीक है। साष्टांग प्रणाम का अभ्यास न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक रूप से भी व्यक्ति को लाभ पहुंचाता है। इसे अपने जीवन में अपनाकर हम अपनी संस्कृति और आध्यात्मिकता को और अधिक समृद्ध बना सकते हैं।