ज्ञान पर संस्कृत श्लोक

ज्ञान पर संस्कृत श्लोकों में आत्मज्ञान, विवेक और सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है। ये श्लोक मनुष्य को अज्ञानता से मुक्ति दिलाने और सच्चे ज्ञान की ओर प्रेरित करने में सहायक होते हैं, जिससे जीवन का वास्तविक उद्देश्य समझा जा सके। निम्नलिखित श्लोक ज्ञान के विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट करते हैं:

ज्ञान पर संस्कृत श्लोक

अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद्विश्वतो मुखम्।
अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः।।

अर्थ: सूत्र के छह लक्षण होते हैं – अल्पाक्षरता (कम शब्द), असंदिग्धता (स्पष्टता), सारवत्ता (सारपूर्णता), सामान्य सिद्धांत (सार्वभौमिकता), निरर्थक शब्द का अभाव (अनावश्यक शब्दों का न होना), और दोषरहितत्व (दोष रहित होना)। ये सभी गुण सूत्रविदों द्वारा मान्यता प्राप्त हैं।

व्याख्या: एक अच्छा सूत्र उन सभी गुणों का पालन करता है जो ज्ञान के स्पष्ट और संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण को सुनिश्चित करते हैं। इसे समझने और सही ढंग से उपयोग करने के लिए सूत्रविदों को इन गुणों को जानना और अपनाना चाहिए।


शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसामिति।
ज्योतिषामयनं चैव षडंगो वेद उच्यते।।

अर्थ: वेद के छह अंग होते हैं – शिक्षा (उच्चार शास्त्र), कल्पसूत्र (अनुष्ठान नियम), व्याकरण (शब्द/व्युत्पत्ति शास्त्र), निरुक्त (कोश), छन्द (वृत्त), और ज्योतिष (समय/खगोल शास्त्र)। ये सभी वेद के अंग कहलाते हैं।

व्याख्या: वेदों के अध्ययन और अभ्यास के लिए इन छह अंगों की समझ आवश्यक है। ये अंग वेदों के विभिन्न पहलुओं को समझने में मदद करते हैं और धार्मिक अनुष्ठानों और ज्ञान के अभ्यास में सहायक होते हैं।


सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्।।

अर्थ: पुराण के पाँच लक्षण होते हैं – सर्ग (उत्पत्ति), प्रतिसर्ग (लय), पुनरुत्पत्ति (पुनर्जन्म), मन्वन्तर (मनु के काल के अनुसार अवधि), और वंशानुचरित (वंश की कहानियाँ)। ये सभी पुराण की विशेषताएँ हैं।

व्याख्या: पुराणों में ये पांच लक्षण ज्ञान के विभिन्न पहलुओं को वर्णित करते हैं। ये विशेषताएँ पुराणों के धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व को समझने में मदद करती हैं।


विषययोगानन्दौ द्वावद्वैतानन्द एव च।
विदेहानन्दो विख्यातो ब्रह्मानन्दश्च पञ्चमः।।
अर्थ: आनंद के पांच प्रकार होते हैं – विषयानंद (वस्तुओं से आनंद), योगानंद (योग से आनंद), अद्वैतानंद (अद्वैत दर्शन से आनंद), विदेहानंद (सांसारिक वस्तुओं से मुक्त आनंद), और ब्रह्मानंद (ब्रह्म के अनुभव से आनंद)।व्याख्या: आनंद के इन विभिन्न प्रकारों से यह स्पष्ट होता है कि आनंद केवल भौतिक वस्तुओं से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और दार्शनिक अनुभवों से भी प्राप्त होता है।


ग्रन्थार्थस्य परिज्ञानं तात्पर्यार्थ निरुपणम्।
आद्यन्तमध्य व्याख्यान शक्तिः शास्त्र विदो गुणाः।।

अर्थ: ग्रंथ के अर्थ की पूरी समझ, तात्पर्य की व्याख्या, और ग्रंथ के किसी भी भाग पर विवेचन की शक्ति – ये शास्त्रविद् के गुण हैं।

व्याख्या: एक शास्त्रविद् की पहचान उसके ग्रंथों के गहन अध्ययन और तात्पर्य की सटीक व्याख्या करने की क्षमता से होती है। यह ज्ञान की गहराई और उस पर अपनी पकड़ को दर्शाता है।


ज्ञानं तु द्विविधं प्रोक्तं शाब्दिकं प्रथमं स्मृतम्।
अनुभवाख्यं द्वितीयं तु ज्ञानं तदुर्लभं नृप।।

अर्थ: ज्ञान दो प्रकार का होता है – एक शाब्दिक ज्ञान (स्मृतिजन्य) और दूसरा अनुभवजन्य ज्ञान। अनुभवजन्य ज्ञान अत्यंत दुर्लभ होता है और इसे प्राप्त करना कठिन होता है।

व्याख्या: शाब्दिक ज्ञान वह है जो पुस्तकें और शास्त्रों से प्राप्त होता है, जबकि अनुभवजन्य ज्ञान वह है जो व्यक्तिगत अनुभव और अभ्यास से प्राप्त होता है। अनुभवजन्य ज्ञान को प्राप्त करना कठिन होता है लेकिन यह अधिक मूल्यवान होता है।


बालः पश्यति लिङ्गं मध्यम बुद्धि र्विचारयति वृत्तम्।
आगम तत्त्वं तु बुधः परीक्षते सर्वयत्नेन।।

अर्थ: जो व्यक्ति बाहरी संकेतों को देखता है, वह बालबुद्धि का होता है; जो केवल वृत्ति का विचार करता है, वह मध्यम बुद्धि का होता है; और जो आगम तत्त्व की पूरी तरह से परीक्षा करता है, वह ज्ञानी होता है।

व्याख्या: एक व्यक्ति की बुद्धि का स्तर उसके ज्ञान के प्रति दृष्टिकोण और समझ से निर्धारित होता है। ज्ञानी व्यक्ति पूरी तरह से आगम के तत्त्वों की परीक्षा करता है और गहरी समझ प्राप्त करता है।


न स्वर्गो वाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।
नैव वर्णाश्रमादीनां क्रिया च फलदायिका।।

अर्थ: स्वर्ग, मोक्ष, आत्मा, परलोक – ये सब कुछ भी सत्य नहीं हैं। वर्णाश्रम और कर्मफल भी वास्तविक नहीं हैं।

व्याख्या: इस श्लोक के अनुसार, पारंपरिक धार्मिक मान्यताएँ जैसे स्वर्ग, मोक्ष, आत्मा और वर्णाश्रम, वास्तविकता से परे हैं और इनमें कोई भी सच्चाई नहीं है।


पञ्चभूतात्मकं वस्तु प्रत्यक्षं च प्रमाणकम्।
नास्तिकानां मते नान्यदात्माऽमुत्र शुभाशुभम्।।

अर्थ: पञ्चभूतात्मक वस्तु और प्रत्यक्ष प्रमाण ही सत्य हैं। नास्तिकों के अनुसार शुभ और अशुभ का कोई अस्तित्व नहीं है।

व्याख्या: नास्तिक मतानुसार, केवल पञ्चभूतात्मक वस्तुएं और प्रत्यक्ष प्रमाण ही सत्य होते हैं। शुभ और अशुभ का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है।


लोकायता वदन्त्येवं नास्ति देवो न निवृत्तिः।
धर्माधर्मौ न विद्यते न फलं पुण्यपापयोः।।

अर्थ: लोकायत (नास्तिक) लोग कहते हैं कि देवता या मुक्ति जैसी कोई चीज नहीं है; धर्म और अधर्म भी नहीं होते; पाप और पुण्य का कोई फल भी नहीं होता।

व्याख्या: लोकायत (नास्तिक) दृष्टिकोण के अनुसार, धार्मिक मान्यताएँ, जैसे देवता, मुक्ति, धर्म, अधर्म, और पाप-पुण्य का फल, सभी निराधार हैं और इनका कोई अस्तित्व नहीं है।

ये श्लोक ज्ञान के विभिन्न पहलुओं और उसकी प्रकृति को स्पष्ट करते हैं, और गहराई से समझने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।

Leave a Comment

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.

Powered By
100% Free SEO Tools - Tool Kits PRO
error: Content is protected !!